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- ४४ | योगदृष्टि समुच्चय
___ यह (सर्वज्ञरूप अर्थ) तत्त्वतः अनुमान का विषय भी नहीं माना गया है। यह तो अतीन्द्रिय विषय है, सामान्य विषय में भी अनुमान से सम्यक् - यथार्थ निश्चय नहीं हो पाता। परम मेधावी (भर्तृहरि) ने भी ऐसा कहा है।
[ १४५ ] यत्नेनानुमितोऽप्यर्थः कुशलरनुमातृभिः ।
अभियुक्ततरैरन्यैरन्यथैवोपपाद्यते
(भर्तृहरि का कथन) अनुमाताओं-अनुमानकारों द्वारा यत्नपूर्वकयुक्तिपूर्वक अनुमित-अनुमान द्वारा सिद्ध किये हुए अर्थ को भी दूसरे प्रबल युक्तिशाली-प्रखर तार्किक अनुमाता दूसरे प्रकार से सिद्ध कर डालते हैं।
[ १४६ ] ज्ञायेरन् हेतुवादेन पदार्था यद्यतोन्द्रियाः । कालेनैतावता प्राज्ञ : कृतः स्यात्तेषु निश्चयः ॥
यदि युक्तिवाद द्वारा अतीन्द्रिय पदार्थों का ज्ञान होता तो बुद्धिशाली तार्किकजन इतने दीर्घकाल में उन (अतीन्द्रिय पदार्थों) के सम्बन्ध में अवश्य निश्चय कर पाते। पर आज तक ऐसा हो नहीं पाया। अतीत की तरह आज भी उन विषयों में वाद-विवाद, खण्डन-मण्डन उसी तीव्रता से चलता है।
[ १४७ ] न चैतदेवं यत्तस्माच्छुष्कतर्कग्रहो महान् । मिथ्याभिमानहेतुत्वात्याज्य एव मुमुक्ष भिः ॥
इस सन्दर्भ में ऐसी स्थिति नहीं है अर्थात् युक्तिवाद या हेतुवाद द्वारा अतीन्द्रिय पदार्थों का निश्चय नहीं हो पाता। अतः मोक्षाथियों के लिए विस्तीर्ण शुष्क तर्क ग्रह-नीरस या सारहीन तर्क की पकड़ अथवा "विकराल तर्क रूपी अनिष्ट ग्रह या प्रेत या मगरमच्छ छोड़ने योग्य है। क्योंकि वह मिथ्या अभिमान का हेतु है ।
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