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तरह आलम्बन में स्थिर होने वाले चित्त की प्रथम अवस्था को 'वितर्क' और उसके बाद की अवस्था को 'विचार' कहते हैं ।
जैन परम्परा में वितर्क का अर्थ है - श्रुत या शास्त्र ज्ञान, और विचार का अर्थ है – एक विषय से दूसरे विषय में संक्रमण करना । योग सूत्र में प्रयुक्त सवितर्क समापत्ति का अर्थ - विकल्प भी किया गया है । विकल्प का तात्पर्य है - शब्द, अर्थ और ज्ञान में भेद होते हुए भी उसमें अभेद-बुद्धि होती है । निर्वितर्क समापत्ति में ऐसी अभेद बुद्धि नहीं होती है, वहाँ केवल अर्थ का शुद्ध बोध होता है । प्रायः ये ही भाव जैन परम्परा में प्रयुक्त पृथक्त्व-वितर्क और एकत्व - वितर्क में परिलक्षित होते हैं । प्रथम ध्यान में विचार- संक्रमण को अवकाश है, परन्तु द्वितीय ध्यान में उसे स्थान नहीं दिया है, जबकि वितर्क को स्थान दिया गया है ।
बौद्ध परम्परा द्वारा वर्णित ध्यानों में भी यह क्रम परिलक्षित होता है । इसके प्रथम ध्यान में वितर्क और विचार - दोनों रहते हैं, परन्तु द्वितीय ध्यान में दोनों का अस्तित्व नहीं रहता है । जबकि जैन परम्परा के द्वितीय ध्यान में वितर्क का सद्भाव तो रहता है, परन्तु विचार का अस्तित्व नहीं रहता और योग सूत्र में सवितर्क संप्रज्ञात में वितर्क, विचार, आनन्द और अस्मिता - इन चारों अंगों के अस्तित्व को स्वीकार किया है ।
बौद्ध परम्परा प्रथम ध्यान में वितर्क, विचार, प्रीति, सुख और एकाग्रता - इन पाँचों के अस्तित्व को स्वीकार करती है । योग- परम्परा द्वारा मान्य आनन्द या आह्लाद और बौद्ध परम्परा द्वारा माने गये प्रीति और सुख में अत्यधिक अर्थ - साम्य है । ऐसा प्रतीत होता है कि योग परम्परा में प्रयुक्त 'अस्मिता' बौद्ध परम्परा द्वारा प्रयुक्त 'एकाग्रता' के उपेक्षा रूप में प्रयुक्त हुई है ।
योग-परम्परा में प्रयुक्त अध्यात्मप्रसाद, ऋतंभरा प्रज्ञा और सूक्ष्म क्रियाअप्रतिपाति में प्रायः अर्थ साम्य दिखाई देता है । जैन - परम्परा का समुच्छिन्न क्रिया - अप्रतिपाति योग-परम्परा का असंप्रज्ञात योग या संस्कार - शेष — निर्बीज योग है, ऐसा प्रतीत होता है । " ૧
उक्त परिशीलन से ऐसा प्रतीत होता है कि भारतीय संस्कृति में प्रवाहमान त्रि-योग परम्पराओं- वैदिक, जैन और बौद्ध में विभिन्न रूप में दिखाई देने वाली व्याख्याओं में बहुत गहरी अनुभव - एकता रही हुई है । ये अलग-अलग दिखाई देने वाली कड़ियाँ पूर्णत पृथक् नहीं, प्रत्युत किसी अपेक्षा - विशेष से एक-दूसरी कड़ी से आबद्ध - जुड़ी हुई भी हैं ।
१ देखो, तत्त्वार्थ सूत्र (पं० सुखलाल संघवी ) ६,४१ ।
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