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दोप्रा-दृष्टि ! ३७ भिन्न-भिन्न प्रकार के फलोपभोग की वाञ्छा लिये पुरुषों के बुद्धिभेद--अपने-अपने बोध या समझ के भेद के अनुरूप राग, मोह, द्वष आदि के कारण निष्पन्न अभिसन्धि या अभिप्राय का फल भिन्न-भिन्न प्रकार का होता है।
[ १२० ] बुद्धिर्ज्ञानमसंमोहस्त्रिविधो बोध इष्यते । तभेदात् सर्वकर्माणि भिद्यन्ते सर्वदेहिनाम ।।
बुद्धि, ज्ञान तथा असंमोह--यों बोध तीन प्रकार का कहा गया है। बोध-भेद के कारण सब प्राणियों के समस्त कर्म भिन्न-भिन्न प्रकार के होते हैं।
[ १२१ ] इन्द्रियार्थाश्रया बुद्धिर्ज्ञानं वागमपूर्वकम् । सदनुष्ठानवच्चैतदसंमोहो ऽभिधीयते
बुद्धि इन्द्रियों द्वारा जाने जाते पदार्थों पर आश्रित है--इन्द्रियगम्य पदार्थ बुद्धि के विषय हैं। उन द्वारा जो बोध होता है, वह बुद्धि है। जो आगम--शास्त्र या श्रत द्वारा बोध उत्पन्न होता है, वह ज्ञान है। प्राप्त ज्ञान के अनुरूप सत् अनुष्ठान--सत्प्रवृत्ति या सआचरण करना असंमोह है। अर्थात् सद्ज्ञान तब असं मोह कहा जाता है, जब वह क्रियान्विति पा लेता है । वह सर्वोत्तम बोध है।
[ १२२ ] रत्नोपलम्भतज्ज्ञानतत्प्राप्त्यादि यथाक्रमम् । इहोदाहरणं साधु ज्ञेयं बुद्ध यादिसिद्ध ये ।।
आँखों द्वारा देखकर यह रत्न है, ऐसा समझना बुद्धि है। रत्न के लक्षण आदि का निरूपण करने वाले शास्त्र के आधार पर उसे विशेष रूप से जानना, उसके लक्षण, स्वरूप आदि को स्वायत्त करना ज्ञान है। यों उस ज्ञान से रत्न के निश्चित स्वरूप को जानकर उसे प्राप्त करना, उपयोग में लेना असंमोह है। इन्द्रियों द्वारा पहचान एवं शास्त्र द्वारा ज्ञान कर
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