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दीपा-दृष्टि | ३६
[ १२६ ] असंमोहसमुत्थानि त्वेकान्तपरिशुद्धितः । निर्वाणफलदान्याशु भवातीतार्थयायिनाम ॥
असंमोह से निष्पन्न होने वाले-किये जाने वाले वे ही कर्म एकान्तरूप से परिशुद्ध-अत्यन्त शुद्ध होने के कारण संसार से अतीत पदार्थ-परम पद, परम तत्त्व का साक्षात्कार करने को समुद्यत-परम तत्त्ववेदी जनों के लिए मोक्षरूप फल देने वाले होते हैं।
[ १२७ ] प्राकृतेष्विह भावेषु येषां चेतो निरुत्सुकम । भवभोगविरक्तास्ते
भवातीतार्थयायिनः ॥ प्राकृत भावों- शब्द, रूप, रस आदि सांसारिक विषयों में जिनका चित्त उत्सुकता रहित है, उदासीन है, जो सांसारिक भोगों से विरक्त हैं, वे भवातोतार्थ यायी-संसारातीत अर्थगामी-परम तत्त्ववेदी कहे जाते हैं।
[ १२८ ] एक एव तु मार्गोऽपि तेषां शमपरायणः ।
अवस्थाभेदभेदेऽपि जलधौ तीरमार्गवत् ॥
अवस्था-भेद के बावजूद उनका शम-निष्कषाय आत्मपरिणति, प्रशान्त भाव, या साम्यप्रधान मार्ग एक ही है। जैसे समुद्र में मिलने वाले सभी मार्ग तटमार्ग हैं, भिन्न-भिन्न दिशाओं से आने के बावजूद उनका उद्दिष्ट एक ही है, यों वे एकरूपता लिये हुए हैं।
[ १२६ ] संसारातीततत्त्वं तु परं निर्वाणसंज्ञितम् ।
तद्ध येकमेव निमयाच्छब्दभेदेऽपि तत्त्वतः ।।
संसार से अतीत परम तत्त्व निर्वाण कहा जाता है। शाब्दिक भेद होते हुए भी वह तात्त्विक दृष्टि से निश्चित रूपेण एक ही है।
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