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२० | योगदृष्टि समुच्चय
[ ६४ ] गुरुभक्तिप्रभावन तीर्थकृद्दर्शनं मतम् । समापत्त्यादिभेदेन
निर्वाणैकनिबन्धनम् ॥ गुरु-भक्ति के प्रभाव से समापत्ति-परमात्मस्वरूप-शुद्ध आत्मस्वरूप के ध्यान द्वारा तीर्थंकर-दर्शन-तीर्थंकर स्वरूप का अन्तः-साक्षात्कार होता है, अथवा तीर्थंकर-नामकर्म का बन्ध होता है, जिसके फलस्वरूप तीर्थकरभाव की प्राप्ति होती है। यह मोक्ष का अद्वितीय-अमोघसुनिश्चित कारण है।
[ ६५ ] सम्यग्घेत्वादिभेदेन लोके यस्तत्त्वनिर्णयः।
वेद्यसंवेद्यपदतः सूक्ष्मबोधः स उच्यते ॥
जीवन का साध्य, उसका यथार्थ हेतु, उसकी परिपुष्टि, तत्त्व का स्वरूप, फल आदि द्वारा ज्ञानी जन तत्त्व का निर्णय करते हैं। वेद्य-वेदने योग्य, जानने योग्य या अनुभव करने योग्य तत्त्व की अनुभूति के कारण वह ज्ञान सूक्ष्मबोध कहा जाता है।
_ [ ६६ ] भावाम्भोधिसमुत्तारात्कर्मवज्रविभेदतः ज्ञयव्याप्तेश्च कात्स्न्येन सूक्ष्मत्वं नायमन तु॥
संसार-सागर से निस्तार, कर्मवज्र-कर्मरूपी हीरे का विभेद तथा अनन्तधर्मात्मक अखण्ड वस्तु-तत्त्व-रूप ज्ञय का समग्रता से ग्रहण--यह सब इससे सधता है, इसलिए इसे सूक्ष्मबोध कहा गया है । अर्थात् एतद्रूप सूक्ष्मबोध हो जाने पर साधक अन्ततः जन्म-मरण के चक्र से छूट जाता है। महामोह-रूप दुर्भेद्य कर्म ग्रन्थि टूट जाती है और ज्ञेय तत्त्व सम्पूर्णतया अधिगत हो जाता है। यह इसकी फलनिष्पत्ति है।
यह सूक्ष्मबोध इस दृष्टि में तथा इससे नीचे की दष्टियों में प्राप्त नहीं होता।
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