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दीप्रा-दृष्टि | २५
[ ७९ ] जन्ममृत्युजराव्याधि रोगशोकाध पद्र तम् । वीक्षमाणा अपि भवं नोद्विजन्तेऽतिमोहतः ॥
जन्म, मृत्यु, वृद्धावस्था, कुष्ट आदि घोर कष्टकर दुःसाध्य व्याधियाँ, ज्वर, अतिसार, विसूचिका आदि अत्यन्त पीड़ाप्रद रोग, इष्ट-वियोग तथा अनिष्ट-संयोग-जनित दुःसह शोक आदि अनेक उपद्रवों से पीड़ित जगत् को देखते हुए भी वैसे जीव अत्यधिक-प्रगाढ़ मोह के कारण उससे जरा भी उद्विग्न नहीं होते, उसकी भयावहता, विकरालता देख उनके मन में खेद नहीं होता, उससे त्रस्त होकर उससे छूटने की भावना मन में नहीं आती।
[ ८० ] कुकृत्यं कृत्यमाभाति कृत्यं चाकृत्यवत् सदा । दुःखे सुखधियाकृष्टा कच्छूकण्डूयकादिवत् ॥
उनको कुकृत्य-बुरा कार्य कृत्य करने योग्य प्रतीत होता है। जो करने योग्य है, वह उन्हें अकरणीय लगता है । जैसे पाँव (खाज, खुजली) को खुजलाने वाला व्यक्ति खुजला-खुजलाकर खुन निकालता जाता है पर वैसा करने में वह अज्ञानवश सुख मानता है, उसी प्रकार भवाभिनन्दी जीव दुःखमय संसार में करणीय, अकरणीय का भेद भूलकर हिंसा, परिग्रह, भोग आदि अकृत्यों में प्रवृत्त रहते हैं। उनमें सुख मानते हैं ।
[ ८१ ] यथाकण्डूयनेष्वेषां धोर्न कच्छूनिवर्तने ।
भोगाङ्गषु तथैतेषां न तदिच्छापरिक्षये ॥
जैसे पाँव को खुजलाने वालों की बुद्धि मात्र खुजलाने में होती है, पाँव को मिटाने में नहीं, उसी प्रकार भवाभिनन्दी जीवों की बुद्धि भोगांगों-भोग्य विपयों में ही रहती है, विषयों की इच्छा-आसक्ति को मिटाने में नहीं।
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