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दीप्रा-दृष्टि | २६
जड़ आशय यह था कि हाथी तो पास में स्थित को पहले मारता है, जो पास में स्थित नहीं है, उसे कैसे मारेगा ? पर, पास में तुम ( महावत ) ही हो इसलिए तुम्हें ही मारेगा । नैयायिक पद्धति से यह तर्क तो उसने किया पर उसके साथ यह व्यावहारिक तथ्य नहीं सोचा कि महावत उसके समीप तो है पर सुपरिचित है, वह महावत से अनुशासित है, महावत को वह कैसे मारेगा ? इसलिए कुतर्क प्रतीतिशून्य और प्रयोजनशून्य कहा गया है ।
स्वभावोत्तरपर्यन्त नावदुग्गोचरो
[ २ ]
एषोऽसावपि न्यायादन्यथाऽन्येन
कुतर्क का पर्यवसान स्वभाव में होता है अर्थात् उसका अन्तिम उत्तर स्वभाव है । पर वह (स्वभाव) भी अर्वाक् - - छद्मस्थ -- असर्वज्ञ को ज्ञात नहीं होता। क्योंकि नैयायिक पद्धति से उसके सन्दर्भ में अनेक प्रकार की परिकल्पनाएँ की जा सकती हैं, जो तर्क गम्य तो हो सकती हैं पर तथ्यपरक नहीं होतीं ।
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तत्त्वतः ।
कल्पितः ॥
[ ६३ ]
च ।
अतोऽग्निः अम्ब्वग्निसन्निधौ
क्लेदयम्बुसन्निधौ दहतीति तत्स्वाभावादित्युदिते तयोः ॥
I
उष्ण जल वस्तु को भिगो देता है, उसे देख, उसमें रहे अग्नि के समावेश को उद्दिष्टकर कोई कुतर्क करे कि अग्नि का स्वभाग भिगोना है; तथा उष्ण जल जला भी देता है, उसे उद्दिष्ट कर दूसरा व्यक्ति ऐसा भी कुतर्क कर सकता है कि जल जलाता है । ये दोनों ही बातें संगत नहीं हैं । यह जो भिगोने और जलाने की बात हुई, उसका तथ्य तो यह है कि उष्ण जल भिगोता है, वहाँ जल का भिगोने का स्वभाव कार्य करता है, तथा जहाँ वह जलाता है, वहाँ अग्नि का जलाने का स्वभाव कार्यकर है अत: वास्तव में भिगोना जल का स्वभाव है और जलाना अग्नि का । पर पूर्वोक्त रूप में कुतर्क स्वभाव विरुद्ध भी किया जा सकता है ।
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