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दीप्रा-दृष्टि | २७
शीलन आदि द्वारा सत्त्वशील पुरुष इस (अवाञ्छनीय) स्थिति को जीत सकते हैं, इसे पराभूत कर सकते हैं।
[ ८६ ] जीयमाने च नियमादेतस्मिस्तत्त्वतो नृणाम् ।
निवर्तते स्वतोऽत्यन्तं कुतर्कविषमग्रहः ॥ , अवेद्यसंवेद्य पद के, जो महामिथ्यात्व का कारण है, जीत लिए जाने पर कुतर्क-कुत्सित या कुटिल तर्क-व्यर्थ तर्क-वितर्क, आवेश-अभिनिवेश की पकड़ स्वयं निश्चित रूप में यथार्थतः सर्वथा मिट जाती है अथवा कुतर्क रूप अनिष्ट ग्रह या भयावह प्रेत या दुर्धर्ष मगरमच्छ की पकड़ से मनुष्य सर्वथा छूट जाते हैं।
[ ८७ ] बोधरोगः शमापायः श्रद्धाभङ्गोऽभिमानकृत् । कुतर्कश्चेतसो व्यक्तं भावशत्रुरनेकधा ॥
कुतर्क बोध के लिए रोग के समान बाधा-जनक, शम-आत्मशान्ति के लिए अपाय-विघ्न या हानिरूप, श्रद्धा को भग्न करने वाला तथा अभिमान को उत्पन्न करने वाला है। वह स्पष्टतः चित्त के लिए अनेक प्रकार से भाव-शत्रु है-चित्त का अनेक प्रकार से अहित करने वाला है।
[ ८८ ] कुतर्केऽभिनिवेशस्तन्न युक्तो मुक्तिवादिनाम् ।
युक्तः पुनः श्रुते शोले समाधौ च महात्मनाम् ।
मुक्तिवादी-मोक्ष की चर्चा करने वाले-मुमुक्षु जनों के लिए कुतीभिनिवेश--कुतर्क में लगे रहना, रस लेना, आग्रह रखना युक्तिसंगत नहीं है । वैसे उत्तम पुरुष के लिए श्रुत-सद् आगम, शील-सच्चारित्र्य तथा समाधि-ध्याननिष्ठा में ही लगाव रखना, आग्रह लिये रहना समुचित है। .
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