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३४ | योगदृष्टि समुच्चय
[ १०७ ] यथैवैकस्य नपतेर्बहवोऽपि समाश्रिताः ।
दूरासन्नादिभेदेऽपि तद्भुत्या सर्व एव ते॥
जैसे एक राजा के यहां रहने वाले अनेक नौकर-चाकर होते हैं, उनमें भिन्न-भिन्न कार्यों की दृष्टि से कोई दूर होते हैं, कोई निकट होते हैं, कोई कहीं होते हैं, कोई कहीं। दूरी, निकटता आदि भेद के बावजूद वे सभी सेवक तो राजा के ही हैं।
[ १०८ ] सर्वज्ञतत्त्वाभेदेन तथा सर्वज्ञवादिनः । सर्वे ततत्त्वगा ज्ञेया भिन्नावार स्थिता अपि ॥
सर्वज्ञ तत्त्व में कोई भेद नहीं है । अतः सभी सर्वज्ञ कहे जाने वाले आप्त पुरुष भिन्न-भिन्न आचार में स्थित होते हुए भी सर्वज्ञतत्त्वोपेत हैं।
[ १०६ ] न भेद एव तत्वेन सर्वज्ञानां महात्मनाम । तथा नामादि भेदेऽपि भाव्यमेतन्महात्मभिः ।।
नाम आदि बाह्य भेद रहते हुए भी महान् आत्मा सर्वज्ञों में तत्त्वतः कोई भेद नहीं है, ऐसा उदारवेता पुरुषों को समझना चाहिए।
[ ११० ] चित्राचित्रविभागेन यच्च देवेषु वणिता।
भक्ति: सद्योगशास्त्रेषु ततोऽप्येवमिदं स्थितम् ॥
शास्त्रों में देवभक्ति दो तरह की बतलाई गई है--चित्र-भिन्न-भिन्न प्रकार की तथा अचित्र -अभिन्न, भिन्न-भिन्न प्रकार की न होकर एक ही प्रकार की। इससे भो पूर्वोक्त कथन सिद्ध होता है।
[ १११ ] संसारिषु हि देवेषु भक्तिस्तत्कायगामिनाम् । तदतीते पुनस्तत्त्वे तदतीतार्थयायिनाम् ।
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