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दोप्रा-दृष्टि | २१
अवेद्यसंवेद्यपदं यस्मादासु तथोल्बणम् ।
पक्षिच्छायाजलचरप्रवृत्त्याभमतः परम् ॥
पिछली चार दृष्टियों में अवेद्यपद-जानने योग्य को अनुभूत कर पाने की क्षमता का अभाव बहुत प्रबल होता है अतः वेद्यसंवेद्यपद वहाँ नहीं सध पाता। आकाश में उड़ते पक्षी की छाया को पक्षी जानकर पकड़ने का उद्यम करते जलचर जैसी स्थिति साधक की वहाँ होती है। अर्थात् तत्त्वतः वहाँ वेद्यसंवेद्यपद की प्राप्ति नहीं होती। उस दिशा में साधक का प्रयत्न तो रहता है, पर वह यथार्थ सिद्ध नहीं होता।
[ ६८ ] अपायशक्तिमालिन्यं सूक्ष्मबोधविबन्धकृत् । नैतद्वतोऽयं ततत्त्वे कदाचिदुपजायते ॥
अपाय-जो नरक आदि दुर्गति प्राप्त कराएँ, ऐसे क्लिष्ट कर्मों की शक्ति रूप मलिनता सूक्ष्मबोध प्राप्त होने में बाधक होती है। यह मालिन्य जिसके होता है, उसे सूक्ष्म तत्त्व-बोध कभी अधिगत नहीं होता।
[ ६६ ] अपायदर्शनं तस्मात्श्रु तदीपान तात्त्विकम् । तदामालंबनं त्वस्य तथा पापे प्रवृत्तितः ॥
आगम एक ऐसा दीपक है, जो मोहरूप अन्धकार से आपूर्ण इस जगत् में समग्र पदार्थों का यथार्थ दर्शन कराता है परन्तु इस दृष्टि में स्थित साधक को अपाय-शक्ति-रूप मलिनता के कारण तत्त्वतः अपायदर्शन नहीं होता अर्थात् आत्म-विपरीत स्थिति में ले जाने वाले क्लिष्ट कर्मों को वह यथार्थत: देख नहीं पाता। वह केवल उनकी आभा या आभास मात्र का अनुभव कर पाता है क्योंकि वह तथाप्रकार के पापों में स्वयं लगा है।
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