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२२ | योगदृष्टि समुच्चय
[ ७० ] अतोऽन्यदुत्तरास्वस्मात् पापे कर्मागसोऽपि हि ।
तप्तलोह-पदन्यासतुल्या वृत्तिः क्वचिद्यदि ।।
अवेद्य-संवेद्यपद के प्रतिरूप-वेद्य-संवेद्यपद आगे की चार दृष्टियों में प्राप्त रहता है। वेद्य-संवेद्यपद के परम प्रभाव के कारण साधक पापकार्य में प्राय: अप्रवृत्त रहता है। पूर्व-संचित अशुभ कर्मवश कदाचित् पाप में प्रवृत्ति हो भी जाती है, तो वह तपे हुए लोहे पर पैर रखने जैसी होती है। जैसे तपे हुए लोहे पर यदि किसी का पैर टिक जाता है तो वह तत्क्षण वहाँ से हटा लेता है, जरा देर भी टिकाये नहीं रखता। उसी प्रकार साधक की यदि जाने-अनजाने हिंसा आदि पापों में प्रवृत्ति हो जाती है तो वह तत्क्षण सावधान हो जाता है, उधर से अपने को उसी क्षण हटा लेता है।
[ ७१ ] वेद्यसंवेद्यपदतः
संवेगातिशयादिति । चरमैव भवत्येषा पुनर्दुर्गत्ययोगतः॥
वेद्य-संवेद्यपद प्राप्त हो जाने के कारण तथा तीव्र मोक्षाभिलाषा के कारण साधक द्वारा जो कदाचित् पाप-प्रवृत्ति होती है, वह अन्तिम होती है। दृष्टिविकासक्रम की अग्रिम मंजिल में वह सर्वथा अवरुद्ध हो जाती है। क्योंकि जैसी स्थिति वह प्राप्त कर चुकता है, उसमें फिर दुर्गति पाने का योग-संभावना नहीं होती।
[ ७२ ] अवेद्यसंवेषपदमपदं
परमार्थतः । पदं तु वेद्यसंवेद्यपदमेव हि योगिनाम् ॥
अवेद्यसंवेद्यपद वास्तव में पद-पैर टिकाने का स्थान-अध्यात्मविकास की यात्रा में उत्प्रेरक, उपयोगी स्थान नहीं है। योगियों के लिए वेद्यसंवेद्य पद ही वस्तुतः पद है।
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