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१८ | योगदृष्टि समुच्चय
अन्तःकरण द्वारा तत्त्व-श्रवण की स्थिति बनती है, अन्तहिकता का भाव उदित होता है। पर, सूक्ष्मबोध अधिगत करना अभी बाकी रहता है। वैसी स्थिति नहीं बनती।
प्राणायाम केवल रेचक-श्वास का बाहर निकालना, पूरक-भीतर खींचना तथा कुम्भ या घड़े से पानी की तरह श्वास को भीतर निश्चलतया रोके रखना–यों बाहरी प्रक्रिया तक ही सीमित नहीं माना जाना चाहिए। बाह्य भाव या परभाव का रेचक-परभाव को अपने में से बाहर निकालना, अन्तरात्मभाव-आत्मस्वरूपानुप्रत्यय भीतर भरना-अन्तर्तम को तन्मूलक चिन्तन-मनन से आपूर्ण करना, उस प्रकार के चिन्तनमनन को अपने में स्थिर किये रहना-यह भाव-प्राणायाम है, जिसका आत्म-विकास में बहुत बड़ा महत्त्व है।
[ ५८ ] प्राणेभ्योऽपि गुरुर्धर्मः सत्यामस्यामस्यामसंशयम् ।
प्राणांस्त्यजति धर्मार्थ न धर्म प्राणसंकटे ॥
इस दृष्टि में संस्थित साधक का मनःस्तर इतना ऊंचा हो जाता है कि वह निश्चित रूप से धर्म को प्राणों से भी बढ़कर मानता है। वह धर्म के लिए प्राणों का त्याग कर देता है पर प्राणघातक संकट आ जाने पर भी धर्म को नहीं छोड़ता।
[ ५६ ] एक एव सुहृद्धर्मो मृतमप्यनुयाति यः । शरीरेण समं नाशं सर्वमन्यत्तु गच्छति ॥
धर्म ही एक मात्र ऐसा सुहृद्-मित्र है, जो मरने पर भी साथ जाता है। और सब तो शरीर के साथ ही नष्ट हो जाता है, शरीर के साथ कोई भी नहीं जाता।
[ ६० ] इत्थं
सदाशयोपेतस्तत्त्वश्रवणतत्परः । प्राणेभ्यः परमं धर्म बलादेव प्रशाले।
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