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१६ | योगदृष्टि समुच्चय
[ ५१ ] अत्वरापूर्वकं सर्व गमनं कृत्यमेव वा । प्रणिधानसमायुक्तमपायपरिहारतः
उस साधक के जीवन में स्थिरता का ऐसा सुखद समावेश हो जाता है कि उसका गमन, हलन-चलन त्वरा-उतावलेपन से रहित होता है।' दृष्टि आदि में दोष न रह जाने से उसके सब कार्य मानसिक सावधानी लिए रहते हैं।
[ ५२ ] कान्तकान्तासमेतस्य दिव्यगेयशु तौ यथा ।
यूनो भवति शुश्रूषा तथास्यां तत्त्वगोचरा ॥
सुन्दर रमणी से युक्त युवा पुरुष को जैसे दिव्य संगीत सुनने की उत्कण्ठा रहती है, उसी प्रकार इस दृष्टि से युक्त साधक को तत्त्व सुनने की उत्सुकता बनी रहती है।
[ ५३ ] बोधाम्भः स्रोतसश्चैषा सिरातुल्या सतां मता । अभावेऽस्याः श्रुतं व्यर्थमसिरावनिकूपवत् ॥
सत्पुरुषों का ऐसा मानना है कि यह शुश्रूषा बोधरूपी जल के स्रोत की सिरा-भूमिवर्ती जलनालिका के समान है। इसके न होने पर सारा सुना हुआ उस कुए की तरह व्यर्थ है, जो जल की अन्तर्नालिका रहित. भूमि में बना हो।
श्रुताभावेऽपि भावेऽस्याः शुभभावप्रवृत्तितः । फलं कर्मक्षयाख्यं स्यात्परबोधनिबन्धनम् ॥
यदि श्रवण का अभाव हो-तत्त्व सुनने का योग न मिल पाये तो । भी शुश्रूषा-तत्त्व-श्रवण की उत्कण्ठा का शुभभाव की प्रवृत्ति के कारण कर्मक्षय रूप फल होता है, जो परम बोध का कारण है।
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