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बला-दृष्टि | १५
बला दृष्टि ---
[ ४६ ] सुखासनसमायुक्त बलायां दर्शनं बढम् । परा च तत्त्वशुश्रूषा न क्षेपो योगगोचरः ॥ ,
बलादृष्टि में सुखासनयुक्त दृढ़ दर्शन-सबोध प्राप्त होता है, परम तत्त्व शुभ षा--तत्त्व-श्रवण की अत्यन्त तीव्र इच्छा जागती है तथा योग की साधना में अक्षेप-क्षेप नामक चित्त-दोष या चैतसिक विक्षेप का अभाव होता है।
इस दृष्टि में योग के तीसरे अंग आसन' के सधने की बात कही गयी है। यहाँ सुखासन शब्द का प्रयोग इस बात का सूचक है कि जिस प्रकार सुखपूर्वक शान्ति से बैठा जा सके, उस आसन में योगी को स्थित होना चाहिए। इससे मन में उद्वेग नहीं होता। ध्यान आदि में चित्त स्थिर रहता है।
बाह्य आसन के साथ-साथ आन्तरिक आसन की बात भी यहाँ समझने योग्य है । आध्यात्मिक दृष्टि से पर वस्तु में जो आसन या स्थिति है, वह दुःखप्रद है। इसलिए वह दुःखासन है। अपने सहज स्वरूप में स्थित होना पारमार्थिक दृष्टि से सुखासन-सुखमय आसन है।
नास्यां सत्यामसत्तृष्णा प्रकृत्यैव प्रवर्तते । तद्भावाच्च सर्वत्र स्थितमेव सुखासनम् ॥
इस दृष्टि के आ जाने पर असत् पदार्थों के प्रति तृष्णा सहज ही प्रवृत्तिशून्य हो जाती है अर्थात् स्वतः रुक जाती है। यों तृष्णा का अभाव हो जाने पर साधक को सब कहीं सुखमय-आत्मिक उल्लासमय स्थिति बन जाती है।
१ स्थिरसुखमासनम् ।
-पातंजल योगसूत्र २-४६
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