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६ | योगदृष्टि समुच्चय
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नोत्तरास्तथा ।
प्रतिपालयताश्चाद्याश्चतस्रो सापत्या अपि चैतास्तत्प्रतिपातेन नेतराः ॥
पहली चार दृष्टियाँ - मित्रा, तारा, बला तथा दीप्रा, प्रतिपात* युक्त हैं अर्थात् जो साधक उन्हें प्राप्त कर लेता है, उनसे भ्रष्ट भी हो सकता है । पर भ्रष्ट होता ही हो, ऐसा नहीं है । भ्रंश या पतन की संभावना के कारण ये चार दृष्टियाँ सापाय- - अपाय या बाधायुक्त कही
-
जाती हैं ।
आगे की चार दृष्टियाँ - स्थिरा, कान्ता, प्रभा तथा परा प्रतिपातरहित, अतएव बाधारहित हैं ।
[२०]
निशि
प्रयाणभङ्गाभावेन विशतो
पड़ता है, जो उसी प्रकार
अप्रतिपाती दृष्टि प्राप्त होने पर योगी का अपने मोक्षरूप लक्ष्य की ओर अनवरत प्रयाण चालू हो जाता है । हाँ, जिस प्रकार यात्रा पर आगे बढ़ते पथिक को रात में कुछ एक स्थानों पर रुकना किसी अपेक्षा से उसकी यात्रा का अंशतः विघात है, मोक्षोन्मुख योगी को अवशिष्ट कर्म-भोग पूरा कर लेने हेतु जन्म आदि में से गुजरना होता है, जो आपेक्षिक रूप में चरण चारित्र्यलक्ष्य की ओर गतिशीलता में विघात या रुकावट है । पर इतना निश्चित है, उसके इस प्रयाण का समापन - लक्ष्य प्राप्ति में होता है ।
बीच में देव
मित्रा-दृष्टि
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स्वापसमः पुनः । दिव्यभावतश्चरणस्योपजायते ॥
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[ २१ ]
तु ॥
मित्रायां दर्शनं मन्दं यम इच्छादिकस्तथा । अखेदो देवकार्यादावद्वषश्चापरत्र समस्त जगत् के प्रति मित्र भाव के उद्बोधन के कारण यह दृष्टि मित्रादृष्टि के रूप में अभिहित हुई है । इस दृष्टि के प्राप्त हो जाने पर
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