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मित्रा - दृष्टि | ७
सत् श्रद्धोन्मुख बोध तो होता है पर वह मन्दता लिए रहता है । मित्रादृष्टि में स्थित साधक योग के प्रथम अंग यम' के प्रारम्भिक अभ्यास इच्छादि यम (यम के अभ्यासगत भेद - इच्छायम, प्रवृत्तियम, स्थिरयम और सिद्धियम) को प्राप्त कर लेता है । देवकार्य, गुरुकार्य, धर्मकार्य में वह अखेद भाव - अपरिश्रान्तभाव से लगा रहता है । उसके खेद नामक आशयदोष अपगत हो जाता है- टल जाता है । जो देवकार्य आदि नहीं करते, उनके प्रति उसे द्व ेष या मत्सर-भाव नहीं होता ।
करोति
अवन्ध्यमोक्षहेतुनामिति
योगविदो
योगवेत्ताओं को यह सुविदित है कि साधक मोक्ष के अमोघ - अचूकहेतु भूत करता है ।
[ २२ ] योगबीजानामुपादानमिह
जिनेषु कुशलं चित्तं प्रणामादि च संशुद्ध
चरमे
[ २३ ]
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अर्हतों के प्रति शुभभावमय चित्त, उन्हें नमस्कार तथा मानसिक, वाचिक, कायिक शुद्धिपूर्ण प्रणमन आदि भक्ति भावमय प्रवृत्ति परमोत्कृष्ट
योग-बीज हैं ।
पुद्गलावर्ते संशुद्धमेतनियमानान्यदापीति
तन्नमस्कार एव च ' योगबीजमनुत्तमम् ॥
[ २४ ]
१ अहिंसासत्यास्तेयब्रह्मचर्यापरिग्रहा यमाः ।
स्थितः । विदुः ॥
इस (मित्रा) दृष्टि में स्थित योग-बीजों को स्वीकार
तथाभव्यत्वपाकत: 1 तद्विदः ॥
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- पातंजलयोगसूत्र २-३०
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