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योगदृष्टियों का स्वरूप | ५
योगदृष्टियों का स्वरूप
[ १५ ] तृणगोमयकाष्ठाग्निकणदीपप्रभोपमा
रत्नतारार्कचन्द्राभा सदृष्टेर्दष्टिरष्टधा ।।
सद्दष्टा पुरुष की दृष्टि बोध-ज्योति की विशदता के विकास की अपेक्षा से घास, कण्डे तथा काठ के अग्नि कण, दीपक की प्रभा, रत्न, तारे, सूर्य और चन्द्र की आभा के सदृश क्रमशः मित्रा, तारा, बला, दीप्रा स्थिरा, कान्ता, प्रभा और परा रूप में आठ प्रकार की है।
[ १६ ] यमादियोगयुक्तानां
खेदादिपरिहारतः । अद्वषादिगुणस्थानं क्रमेणैषा सतां मता ॥
यम, नियम आदि योगांगों के साधक, खेद, उद्वेग आदि दोषों के परिहारक सत्पुरुषों के क्रमशः अद्वेष, जिज्ञासा आदि गुणों की आधारस्थानीया ये-मित्रा आदि योग-दृष्टियाँ निष्पन्न होती हैं।
सच्छ्रद्धासंगतो बोधो
दृष्टिरित्यभिधीयते । असत्प्रवृत्तिव्याघातात्
सत्प्रवृत्तिपदावहः ॥ सत् श्रद्धा से युक्त बोध दृष्टि कहा जाता है। उससे असत् प्रवृत्ति की रुकावट होती है तथा सत् प्रवृत्ति में गति होती है।
[ १८ ] इयं चावरणापायभेदादष्टविधा स्मृता । सामान्येन विशेषास्तु भूयान्सः सूक्ष्मभेदतः॥
आत्मा के शुद्ध स्वरूप को ढकने वाले आवरण के दूर होते जाने की तरतमता की दृष्टि से सामान्यतः स्थूल-रूप में दष्टि आठ प्रकार की मानी गई है.। सूक्ष्मता में जाने पर उसके बहुत-अनेक भेद होते हैं।
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