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त्रियोग | ३ होगा। उससे सर्वज्ञभाव सधेगा और वैसा होने पर सिद्धि-परम सफलतामुक्तता प्राप्त होगी पर वस्तुतः ऐसा होता नहीं। इसलिए प्रातिभ ज्ञानप्रतिभा या असाधारण आत्म-ज्योति से उत्पन्न ज्ञान-आत्मानुभव या स्वसंवेदन के अद्भुत प्रकाश-अनन्यं तत्त्वचिन्तन, दीप्ति से संयुक्त सामर्थ्ययोग ही सर्वज्ञता आदि का हेतु है । सामर्थ्ययोग की विशेषता-सूक्ष्म स्वरूप शब्दों द्वारा नहीं कहा जा सकता।
[ ६ .] द्विधाऽयं धर्मसंन्यास - योगसंन्याससंज्ञितः ।
क्षायोपशमिका धर्मा योगाः कायादिकर्म तु॥
सामर्थ्य योग धर्मसंन्यास और योगसंन्यास के रूप में दो प्रकार का है। क्षयोपशम से उत्पन्न स्थिति धर्म है तथा देह आदि का कर्म योग है ।
[ १० ] द्वितीयापूर्वकरणे प्रथमस्तात्त्विको भवेत् ।
आयोज्यकरणादूर्ध्व द्वितीय इति तद्विदः ॥
पहला-धर्मसन्यास-तात्त्विक धर्मसंन्यास द्वितीय अपूर्वकरण में अर्थात् ग्रन्थिभेदरूप प्रथम अपूर्वकरण के पश्चात् क्षपक-श्रेणी-आरोहण में सधता है।
वेदनीय आदि कर्मों की आयुष्य कम की तुलना में अधिक स्थिति देख केवली भगवान् द्वारा उन्हें समंजस करने हेतु कर्मों की उदीरणा, जिससे समुद्घात द्वारा वे शीघ्र क्षीण किये जा सकें, आयोज्यकरण है । आयोज्यकरण से आगे योगसंन्यास सधता है।
[ ११ ] अतस्त्वयोगो योगानां योगः पर उदाहृतः । मोक्षयोजनभावेन
सर्वसंन्यासलक्षणः । इसलिए अयोग-मानसिक, वाचिक, कायिक कर्म का सर्वथा राहित्य योगों में परम-सर्वोत्कृष्ट है क्योंकि वह आत्मा को मोक्ष से जोड़ता है । वह सर्वसंन्यासमय है। आत्मा के अतिरिक्त सब कुछ वहाँ छूट जाता है ।
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