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मित्रा-दृष्टि | ११
[ ३५ ] एतच्च सत्प्रणामादिनिमित्तं समये स्थितम् । अस्य हेतुश्च परमस्तथा भावमलाल्पता ॥
सत्प्रणाम- सत्पुरुषों को प्रणमन, उनकी वैयावृत्य-सेवा आदि सत्कार्यों के परिणामस्वरूप अवञ्चकत्रय की प्राप्ति होती है। सत्प्रणाम आदि उत्तम कार्यों का मुख्य हेतु भावमल-वैचारिक मलिनता की अल्पता है।
नास्मिन् घने यतः सत्सु, तत्प्रतीतिर्महोदया । कि सम्यग् रूपमादत्ते कदाचिन्मन्दलोचनः ॥
जब तक भावमल सघनता लिए रहता है, तब तक साधक के मन में सत्पुरुषों के प्रति महोदय-उत्कृष्ट आत्म-अभ्युदय या अन्तःश्रद्धारूप प्रतीति नहीं होती। जिनको नेत्र-ज्योति मन्द है, ऐसा पुरुष क्या दृश्य पदार्थों का रूप भलीभाँति ग्रहण कर सकता है ?
[ ३७ ] अल्पव्याधिर्यथा लोके तद्विकारैर्न बाध्यते ।
चेष्टते चेष्ट-सिद्ध यर्थं वृत्त्यवायं तथा हिते ॥
अल्पव्याधि-जिसके बहुत थोड़ी बीमारी बाकी रही है जो लगभग स्वस्थ जैसा है, वह अवशिष्ट रहे अति साधारण रोग के मामूली विकारों से बाधित नहीं होता। वह इच्छित कार्य साधने के लिए प्रयत्नशील रहता है। उसी प्रकार वह योगी-योग साधक वृत्ति-धृति, श्रद्धा, सुविवदिषा-सत्तत्व चर्चा तथा विज्ञप्ति-विशिष्ट ज्ञानानुभूति-इन चार अन्तर्वृत्तियों के साथ हितकर कार्य में प्रवृत्त होता है ।
[ ३८ ] यथाप्रवृत्तिकरणे
चरमेऽल्पमलत्वतः । आसन्नग्रन्थिभेदस्य समस्तं जायते ह्यदः ।।
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