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मंगलाचरण
योगदृष्टि समुच्चय
इहैवेच्छावियोगानां योगिनामुपकाराय
[ १
योगिगम्यं
नत्वेच्छायो गतोऽयोगं जिनोत्तमम् । वक्ष्ये समासेन योगं तद्हष्टिभेदतः ॥
वीरं
अयोग - मानसिक, वाचिक, कायिक योग-प्रवृत्ति से अतीत, योगिगम्य – योग-साधकों द्वारा प्राप्य -- अनुभाव्य, जिन श्र ेष्ठ भगवान् महावीर को इच्छायोग से अन्तर्भावपूर्वक नमस्कार कर मैं योग का योगदृष्टियों के रूप में विश्लेषण करते हुए संक्षेप में विवेचन करूंगा ।
त्रियोग - ( इच्छायोग, शास्त्रयोग, सामथ्यंयोग )
[ २ ]
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व्यक्तं
यहाँ योग के प्रसंग में, योग साधकों के लाभार्थं इच्छायोग, शास्त्रयोग तथा सामर्थ्ययोग के स्वरूप का विशद रूप में वर्णन किया जा रहा है ।
स्वरूपमभिधीयते । योगप्रसंगतः ॥
[ ३
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प्रमादतः I
कर्तुमिच्छोः श्रुतार्थस्य ज्ञानिनोऽपि धर्मयोगो यः स इच्छायोग उच्यते ॥
विकलो
जो धर्म - आत्मोपलब्धि की इच्छा लिये है, जिसने आगम-अर्थशास्त्रीय सिद्धान्तों का श्रवण किया है, ऐसे ज्ञानी पुरुष का प्रमाद के कारण विकल - असम्पूर्ण धर्मयोग इच्छायोग कहा जाता है ।
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