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विषयक हैं, परन्तु इसका वर्णन उक्त चार ग्रन्थों में ही आ जाता है । इसमें योग विषयक किसी भी नई बात का उल्लेख नहीं मिलता है। अतः उनके योग से सम्बन्धित चार ग्रन्थ ही मुख्य हैं। इनमें प्रथम के दो ग्रन्थ संस्कृत में हैं और अन्तिम दो ग्रन्थ प्राकृत भाषा में हैं । योगबिन्दु में ५२७ श्लोक हैं, योगदृष्टि समुच्चय २२८ श्लोकों का है, योगशतक और योग-विशिका में क्रमशः १०१ और २० गाथाएं हैं। १. योगबिन्दु
प्रस्तुत ग्रन्थ में सर्वप्रथम योग के अधिकारी का उल्लेख किया है । जो जीव चरमावर्त में रहता है, अर्थात् जिसका काल मर्यादित हो गया है, जिसने मिथ्यात्वग्रन्थि का भेदन कर लिया है और जो शुक्लपक्षी है, वह योग साधना का अधिकारी है। वह योग-साधना के द्वारा अनादिकाल से चले आ रहे अपरिज्ञात संसार या भवभ्रमण का अन्त कर देता है । इसके विपरीत जो अचरमावर्त में स्थित हैं, वे मोहकर्म की प्रबलता के कारण संसार में, विषय-वासना में और काम-भोगों में आसक्त बने रहते हैं । अतः वे योग-मार्ग के अधिकारी नहीं हैं । आचार्य ने उन्हें 'भवाभिनन्दी' की संज्ञा से सम्बोधित किया है ।
योग के अधिकारी जीवों को आचार्य ने चार भागों में विभक्त किया है१ अपुनर्बन्धक, २, सम्यग्दृष्टि या भिन्नग्रन्थि, ३ देशविरति, और ४ सर्व विरति-छठे गुणस्थान से लेकर चतुर्दश गुणस्थान पर्यन्त । प्रस्तुत ग्रन्थ में उक्त चार भेदों के स्वरूप एवं अनुष्ठान पर विस्तार से विचार किया गया है।
चारित्र के वर्णन में आचार्यश्री ने पाँच योग-भूमिकाओं का वर्णन किया है-१ अध्यात्म, २ भावना, ३ ध्यान, ४ समता, और ५ वृत्तिसंक्षय । यह अध्यात्म आदि योग-साधना देशविरति नामक पञ्चम गुणस्थान से ही शुरू होती है। अपुनबन्धक एवं सम्यग्दृष्टि अवस्था में चारित्र मोहनीय की प्रबलता रहने के कारण योग बीज रूप में रहता है, अंकुरित एवं पल्लवित-पुष्पित नहीं होता । अतः योग साधना का विकास देशविरति से माना गया है ।
१ अध्यात्म :-यथाशक्य अणुव्रत या महाव्रत को स्वीकार करके मैत्री, प्रमोद, करुणा एवं माध्यस्थ्य भावनापूर्वक आगम के अनुसार तत्त्व या आत्मचिन्तन करना अध्यात्म साधना है। इससे पाप कर्म का क्षय होता है, वीर्य-सत् पुरूषार्थ का उत्कर्ष होता है और चित्त में समाधि की प्राप्ति होती है।
२ भावना :-अध्यात्म-चिन्तन का बार-बार अभ्यास करना 'भावना' है। इससे काम, क्रोध आदि मनोविकारों एवं अशुभ भावों की निवत्ति होती है और ज्ञान आदि शुभ भाव परिपुष्ट होते हैं ।
१ योग-बिन्दु, ७२, ६६. २ वही, ८५-८७.
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