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३ ध्यान :- तत्त्व चिन्तन की भावना का विकास करके मन को, चित्त को किसी एक पदार्थ या द्रव्य के चिन्तन पर एकाग्र करना, स्थिर करना 'ध्यान' है । इससे चित्त स्थिर होता है और भव-परिभ्रमण के कारणों का नाश होता है ।
४ समता : --संसार के प्रत्येक पदार्थ एवं सम्बन्ध पर - - भले ही वह इष्ट हो या अनिष्ट, तटस्थ वृत्ति रखना 'समता' है । इससे अनेक लब्धियों की प्राप्ति होती है और कर्मों का क्षय होता है ।
५ वृत्ति-संक्षयः --- विजातीय द्रव्य से उद्भूत चित्त वृत्तियों का जड़मूल से नाश करना 'वृत्ति-संक्षय' है । इस साधना के सफल होते ही घातिकर्म का समूलतः क्षय हो जाता है, केवल ज्ञान, केवल दर्शन की प्राप्ति होती है और क्रमशः चारों अघाति कर्मों का क्षय होकर निर्वाण पद- मोक्ष की प्राप्ति होती है ।
आत्म-भावों का विकास करके एवं उन्हें शुद्ध बनाते हुए साधक चारित्र की तीन भूमिकाओं को पार करके चौथी समता - साधना में प्रविष्ट होता है और वहाँ क्षपकश्रेणी करता है । उसके बाद वह वृत्ति-संक्षय की साधना करता है । आचार्य हरिभद्र ने प्रथम की चार भूमिकाओं की पातञ्जल योग-सूत्र में वर्णित संप्रज्ञात समाधि के साथ और अन्तिम पाँचवीं भूमिका की असंप्रज्ञात समाधि के साथ समानता बताई है । उपाध्याय यशोविजय जी ने भी अपनी योग-सूत्र वृत्ति में इस समानता को स्वीकार किया है !
आपने प्रस्तुत ग्रन्थ में पाँच अनुष्ठानों का भी वर्णन किया है - १. विष, २ . गर, ३. अननुष्ठान, ४. तद्धेतु तथा ५ अमृत अनुष्ठान । इसमें प्रथम के तीन असदनुष्ठान हैं । अन्तिम के दो अनुष्ठान सदनुष्ठान हैं और योग-साधना के अधिकारी व्यक्ति को सदनुष्ठान ही होता है ।
२. योगदृष्टि समुच्चय
प्रस्तुत ग्रन्थ में वणित आध्यात्मिक विकास का क्रम परिभाषा, वर्गीकरण और शैली की अपेक्षा से योग-बिन्दु से अलग दिखाई देता है । योग- बिन्दु में प्रयुक्त कुछ विचार इसमें शब्दान्तर से अभिव्यक्त किये गये हैं और कुछ विचार अभिनव भी हैं । प्रस्तुत ग्रन्थ में योगबिन्दु में प्रयुक्त अचरमावर्त काल- - अज्ञान काल की अवस्था को 'ओघ - दृष्टि' और चरमावर्तकाल - ज्ञान काल की अवस्था को 'योगदृष्टि' कहा है । ओघ दृष्टि में प्रवर्तमान भवाभिनन्दी का वर्णन योग- बिन्दु के वर्णनसाही है ।
इस ग्रन्थ में योग की भूमिकाओं या योग के अधिकारियों को तीन विभागों में विभक्त किया गया है। प्रथम भेद में प्रारम्भिक अवस्था से लेकर विकास की चरम - अन्तिम अवस्था तक की भूमिकाओं के कर्ममल के तारतम्य की अपेक्षा से आठ
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