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वि० सं० १९६४ मगसिर कृष्णा ११ को प्रातः ८ बजे परम श्रद्धेय स्वामी जी श्री हजारीमलजी महाराज के कर-कमलों से मेरी और पिताजी की दीक्षा सम्पन्न हुई । मैं परम श्रद्धया महासती श्री सरदारकुवरजी महाराज की शिष्या बनी और पिताजी परम श्रद्धेय श्री हजारीमलजी महाराज के शिष्य बने । साधना का प्रारम्भ
दीक्षा के समय आपकी आयु ५३ वर्ष की थी और अध्ययन बहुत गहरा नहीं था । परन्तु गृहस्थ जीवन से ही ध्यान एवं आत्म-चिन्तन की ओर आपका मन लगा रहता था। उसी भावना को विकसित करने से लिए आप प्रायः मौन रखते थे और ध्यान, जप एवं आत्म-चिन्तन में संलग्न रहते थे। इसके साथ-साथ उन्होंने तप-साधना भी प्रारम्भ कर दी । वे सदा दिन भर में एक बार ही आहार करते थे
और वह भी एक ही पात्र में खाते थे। उन्हें जो कुछ खाना होता, वह अपने एक पात्र में ही ले लेते थे। स्वाद पर, जिह्वा पर उनका पूरा अधिकार था । वे स्वाद के लिए नहीं, केवल जीवन-निर्वाह के लिए खाते थे।
___दीक्षा ग्रहण करने के पश्चात् भी आपको अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ा, अनेक परिषह सहने पड़े । अनेक अनुकूल एवं प्रतिकूल समस्याएं आपके सामने आईं। परन्तु आप सदा अपने विचारों पर, अपने साधना-पथ पर अडिग रहे । आप उनसे कभी घबराए नहीं, विचलित नहीं हुए। वे समस्याओं को दुःख का, पतन का कारण नहीं, बल्कि जीवन-विकास का कारण मानते थे । अतः शान्त भाव से उन्हें सुलझाते रहे और उन पर विजय पाने का प्रयत्न करते रहे । स्थविर-वास
कुछ वर्षों में आपकी शारीरिक शक्ति काफी क्षीण हो गई। फिर भी आप विहार करते रहे । जब तक पैरों में चलने की शक्ति रही, तब तक अपने परम श्रद्धेय गुरुदेव के साथ विचरण करते रहे । परन्तु जब पैरों में गति करने की शक्ति नहीं रही, चलते-चलते पैर लड़खड़ाने लगे, तब पूज्य गुरुदेव की आज्ञा से आप कुन्दन भवन, ब्यावर में स्थानापति हो गए। मुनि श्री भानु ऋषि जी म० आपकी सेवा में रहे । मुनि श्री पाथर्डी परीक्षा बोर्ड से जैन सिद्धान्ताचार्य की परीक्षा की तैयारी कर रहे थे। परन्तु अध्ययन के साथ सेवा भी बहुत करते थे। मुनि श्री ने दो वर्ष तक तन मन से जो सेवा-शुश्रुषा की वह कभी भी विस्मृति के अंधेरे कोने में नहीं धकेली जा सकती। मुनिश्री का उनके साथ पिता-पुत्र-सा स्नेह सम्बन्ध था। वह दृश्य आज भी मेरी आँखों के सामने घूमता रहता है। दयालु हृदय
___ आप करीब १८ वर्ष ८ महीने श्रमण-साधना में संलग्न रहे। इस साधनाकाल में आपके जीवन में अनेक घटनाएँ घटित हुई, परन्तु आप सदा शान्तभाव से सहते रहे । आप में अपने कष्टों एवं दुःखों को सहने की हिम्मत थी। परन्तु वे दूसरों
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