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सोपक्रम-निरुपक्रम कर्म का स्वरूप' और अनेक कायों-शरीरों का निर्माण आदि विषय के निरूपण में दोनों परम्पराओं में समानता परिलक्षित होती है। ३. प्रक्रिया-साम्य
दोनों में प्रक्रिया का भी साम्य है। वह यह है कि परिणामिनित्यता अर्थात् उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य से त्रिरूप वस्तु मानकर तदनुसार धर्म और धर्मों का वर्णन किया गया है।
अन्तर्धान, हस्तिबल, परकाय प्रवेश, अणिमादि ऐश्वर्य तथा रूप, लावण्यादि कायसंपत्तियाँ शारीरिक विभूतियाँ हैं। जैन शास्त्र में भी अवधिज्ञान, मनःपर्याय ज्ञान, जाति-स्मरण, पूर्वज्ञान आदि ज्ञान-लब्धियाँ हैं और आमौषधि, विघुडौषधि, श्लेष्मौषधि, सौषधि, जंघाचारण, विद्याचारण, वैक्रिय, आहारक आदि शारीरिक लब्धियाँ हैं । लब्धि-विभूति का नामान्तर है।--आवश्यकनियुक्ति, गाथा ६६, ७०।। योग-सूत्र के भाष्य और जैन-शास्त्रों में सोपक्रम-निरुपक्रम आयुष्कर्म का एक सा वर्णन मिलता है। इसके स्वरूप को स्पष्ट करते हुए योग-सूत्र, ३, २२ के भाष्य मे आई वस्त्र और तृण-राशि के दो दृष्टान्त दिये हैं। वे दोनों दृष्टान्त आवश्यकनियुक्ति, ६५६ तथा विशेषावश्यकभाष्य, ३०६१ आदि ग्रन्थों में सर्वत्र प्रसिद्ध हैं । तत्त्वार्थ सूत्र २, ५२ के भाष्य में उक्त दो उदाहरणों के अतिरिक्त गणितविषयक तीसरा दृष्टान्त भी दिया है और योग-सूत्र के व्यास-भाष्य में भी यह
दृष्टान्त मिलता है । दोनों में शाब्दिक साम्य भी बहुत अधिक है। २ योग-बल से योगी अनेक शरीरों का निर्माण करता है । इसका वर्णन योग-सूत्र
४,४ में है । यही विषय वैक्रिय-आहारक-लब्धि रूप से जैन आगमों में
वर्णित है। ३ जैनागमों में वस्तु को द्रव्य-पर्याय स्वरूप माना है । द्रव्य की अपेक्षा से वह सदा
शाश्वत रहती है, इसलिए वह नित्य है । परन्तु, पर्याय की अपेक्षा से उसका प्रतिक्षण नाश एवं निर्माण होता रहता है, इसलिए वह अनित्य भी है। इसलिए तत्त्वार्थ सूत्र, ५, २६, में सत् का यह लक्षण दिया है- 'उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तं सत् ।' योग-सूत्र ३, १३-१४ में जो धर्म-धर्मी का वर्णन है, वह वस्तु के उक्त द्रव्य-पर्यायरूप या उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य-इस त्रिरूपता का ही चित्रण है। इसमें कुछ भिन्नता भी है । बह यह है कि योग-सूत्र सांख्य-दर्शन के अनुसार निर्मित है, इसलिए वह 'ऋतेचित्शक्तेः परिणामिनो भावः' इस सूत्र को मानकर परिणामवाद का उपयोग सिर्फ जड़ भाग---प्रकृति में करता है, चेतन में नहीं और जैन-दर्शन 'सर्वे भावाः परिणामिनः' ऐसा मानकर परिणामवाद का उपयोग जड़-चेतनदोनों में करता है । इतनी भिन्नता होने पर भी परिणामवाद की प्रक्रिया दोनों में एक सी है।
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