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एकात्मवाद को लक्ष्य में रखकर लिखे गये हैं और महाभारत, योग-प्रकरण, योग-सूत्र, तथा जैन और बौद्ध योग शास्त्र अनेकात्मवाद के आधार पर लिपिबद्ध किये गये हैं । इस तरह योग - परम्परा दो धाराओं में प्रवहमान रही है ।
यदि हम दार्शनिक दृष्टि से सोचते हैं तो भारतीय संस्कृति तीन धाराओं में प्रवहमान रही है - १. वैदिक, २. जैन और ३. बौद्ध । इस अपेक्षा से योग-साधना या योग - साहित्य की भी तीन परम्पराएँ मानी जाती हैं- १. वैदिक योग-परम्परा, २. जैन योग- परम्परा, और ३. बौद्ध योग- परम्परा । तीनों परम्पराओं का अपना स्वतन्त्र चिन्तन है और मौलिक विचार है । सबने अपने दृष्टिकोण से योग पर सोचा- विचारा एवं लिखा है । फिर भी तीनों परम्पराओं के विचारों में भिन्नता के साथ बहुत कुछ साम्य भी है । आगे की पंक्तियों में हम इस पर क्रमशः विचार करेंगे ।
वैदिक योग और साहित्य
१
वैदिक परम्परा में वेद मुख्य है । उनमें प्राचीनतम ग्रन्थ 'ऋग्वेद' है । उसका अधिकांश भाग आधिभौतिक एवं आधिदैविक वर्णन से भरा पड़ा है । वस्तुतः वेदों में आध्यात्मिक वर्णन बहुत कम देखने को मिलता है । ऋग्वेद में 'योग' शब्द अनेक स्थानों पर आया है, परन्तु सर्वत्र उसका अर्थ - जोड़ना, मिलाना, संयोग करना इतना ही है; ध्यान एवं समाधि अर्थ नहीं है । इतना ही नहीं, उसके बाद योग विषयक ग्रन्थों में योग के अर्थ में प्रयुक्त, ध्यान, वैराग्य, प्राणायाम, प्रत्याहार आदि अर्थ में योग शब्द का उल्लेख नहीं किया गया है । इसके अतिरिक्त अतिप्राचीन उपनिषदों में भी 'योग' शब्द आध्यात्मिक अर्थ में प्रयोग नहीं हुआ है । कठोपनिषद्, श्वेताश्वतर उपनिषद् जैसे उत्तरकालीन उपनिषदों में 'योग' शब्द का आध्यात्मिक अर्थ में प्रयोग हुआ है । २ फिर भी इतना व्यापक रूप से नहीं हुआ, जितना कि 'तप' शब्द का हुआ है । ठेठ ऋग्वेद से लेकर उपनिषद् काल तक के साहित्य का अनुशीलन- परिशीलन करने से
ऋग्वेद १, ५, ३; १, १८, ७, १,३४, ६, २, ८, १६, ५८, ; और १०, १६६, ५.
२ (क) योग आत्मा ।
(ख) तं योगमिति मन्यन्ते स्थिरामिन्द्रिय धारणाम् । अप्रमत्तस्तदा भवति योगो हि प्रभवाप्ययो ॥
१
- तैत्तिरीय उप०, २, ४.
- कठोपनिषद्, २, ६, ११.
(ग) अध्यात्म - योगाधिगमेन देवं मत्वाधीरो हर्ष - शोकौ जहाति ।
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- कठोपनिषद् १, २, १२.
(घ) तत्कारणं सांख्ययोगाधिगम्यं ज्ञात्वा देवं मुच्यते सर्वपाशैः ।
-- श्वेताश्वतर, उपनिषद् ६, १३.
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