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करने के लिये पूर्णतः स्वतन्त्र है। आध्यात्मिक विकास, आत्म-साधना एवं आत्मचिन्तन पर किसी देश, जाति, वर्ण, वर्ग या धर्म-विशेष का एकाधिपत्य (Monopoly) नहीं है। इसका कारण यह है कि भारतीय ऋषि-मुनियों एवं विचारकों के चिन्तनमनन, तथा साहित्य का आदर्श एक रहा है। तत्त्वज्ञान, आचार, इतिहास, काव्य, नाटक, रूपक आदि साहित्य का कोई-सा भाग लें, उसका अन्तिम आदर्श मोक्ष रहा है। वैदिक साहित्य में वेदों का अधिकांश भाग प्राकृतिक दृश्यों, देवों की स्तुतियों तथा क्रिया-काण्डों के वर्णन ने घेर रखा है। परन्तु यह वर्णन वेद का बाह्य शरीर मात्र है। उसकी आत्मा इससे भिन्न है, वह है परमात्म-चिन्तन । उपनिषदों का भव्य भवन तो ब्रह्म-चिन्तन की आधारशिला पर ही स्थित है। और जैन आगमों में आत्मा का साध्य 'मोक्ष' माना है । समस्त आगमों का निचोड़ एवं सार 'मुक्ति' है और उसमें मुक्ति-मार्ग का ही विस्तार से वर्णन किया है।
इसके अतिरिक्त तत्त्वज्ञान सम्बन्धी सूत्र एवं दर्शन-ग्रन्थों तथा आचार-विषयक ग्रन्थों को देखें, तो उनमें साध्य रूप से मोक्ष का ही उल्लेख मिलेगा। रामायण और महाभारत में भी उसके मुख्य पात्रों का महत्त्व इसलिए नहीं है कि वे राजा या राजकुमार थे, परन्तु उसका कारण यह है कि वे जीवन के अन्तिम समय में संन्यास या तप साधना के द्वारा मोक्ष-अनुष्ठान में संलग्न रहे। इसके अतिरिक्त कालिदास जैसा महान् कवि भी अपने प्रमुख पात्रों का महत्त्व मुक्ति की ओर झुकने में देखता है। शब्द शास्त्र में शब्द शुद्धि को तत्त्वज्ञान का द्वार मानकर उसका अन्तिम ध्येय परम श्रेय ही माना है । और तो क्या ? काम-शास्त्र जैसे काम-विषयक ग्रन्थ का
१ (क) धर्म विशेषप्रसूताद् द्रव्य-गुण-कर्म-सामान्य-विशेष-समवायाना पदार्थानां साधर्म्य-वैधाभ्यां तत्त्वज्ञानानिःश्रेयसम् ।
वैशेषिक दर्शन, १, ४ (ख) प्रमाण-प्रमेय-संशय-प्रयोजन-दृष्टान्त-सिद्धान्तावयव-तर्क-निर्णय-वाद-जल्पवितण्डा-हेत्वाभासच्छल-जाति-निग्रहस्थानानां तत्त्वज्ञानानिःश्रेयसम् ।
-न्यायदर्शन, १, १ (ग) अथ त्रि-विधदुःखात्यन्तनिवृत्तिरत्यन्त-पुरुषार्थः । -सांख्यदर्शन, १ (च) अनावृत्तिः शब्दादनावृत्तिः शब्दात् । वेदान्त दर्शन, ४, ४, २२
(छ) सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्राणि मोक्षमार्गः । -तत्त्वार्थ सूत्र, १, १ २ शाकुन्तल नाटक, अंक ४, कण्वोक्ति; रघुवंश १,८; ३, ७० ३ द्व ब्रह्मणी वेदितव्ये शब्दब्रह्म परं च यत् ।
शब्दब्रह्मणि निष्णातः परं ब्रह्माधिगच्छति ॥ व्याकरणात्पदसिद्धिः पदसिद्धरर्थनिर्णयो भवति । अर्थात्तत्त्व-ज्ञानं तत्त्वज्ञानात् परं श्रेयः ।।
-सिद्धहेमशब्दानुशासनम् १, १, २
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