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28/श्री दान-प्रदीप
यह कहकर उसको लात मारकर यमराज के मन्दिर में पहुंचा दिया। उसके बाद नागेन्द्र ने स्नेहपूर्वक उन दोनों से कहा-"मैं इस रत्न-कटौरे का स्वामी नागेन्द्र नामक देव हूं। इस पुरुष ने वन में रहकर फल का आहार किया, होम किया, ब्रह्मचर्य का पालन किया
और जाप किया। इस प्रकार की अन्य भी दुष्कर तपस्याओं के द्वारा 12 वर्ष तक सम्यग प्रकार से मेरी आराधना की। इसीलिए मैंने उसे यह रत्न-कटौरा प्रदान किया था। यह चिन्तामणि के समान होने से हर किसी को नहीं मिल सकता। पर पूर्वकृत अगण्य पुण्य के प्रभाव से चक्रवर्ती के चक्ररत्न की तरह यह रत्न-कटौरा तुम्हें बिना किसी तप के स्वतः ही प्राप्त हो गया है। मेरी कृपा से तीव्र तपस्या के बिना भी जीवन-पर्यन्त इसके द्वारा तुम्हारे सर्वार्थ की सिद्धि होगी। इस मनुष्य भव में भी तुम्हें अविच्छिन्न रूप से सर्व दिव्य भोगों की प्राप्ति होगी।
यह कहकर नागराज अदृश्य हो गये। उसके बाद कुमार ने मदनमंजरी की प्रशंसा करते हुए कहा-“अहो! तेरा पराक्रम अद्भुत है! अहो! तेरी पतिभक्ति अकृत्रिम है! अहो! तेरे वचनों की चतुराई! अहो! तेरी बुद्धि की निपुणता! हे देवी! श्रेष्ठ काष्ठवाली नाव की तरह तेरी इस बुद्धि के द्वारा ही मैं इस दुस्तर कष्ट रूपी समुद्र को तैरकर पार कर पाया हूं। अगर तुम मेरे पीछे-2 यहां तक न आयी होती, तो मैं कैसे जीवित रह पाता? मेरा राज्य कहां होता? यह रत्न-कटौरा कहां से प्राप्त होता? चाहे कितनी भी राजकन्याएँ मेरी पत्नियाँ बन जाएँ, पर उन सब के मध्य तुम ही मेरी पटरानी रहोगी।"
इस प्रकार उसकी अत्यधिक प्रशंसा करके उसे तथा रत्नकटौरे को साथ में लेकर राजपुत्र अपने सैन्य के पास आकर सुखपूर्वक सो गया। प्रातःकाल होने पर उस कटौरे को देवगृह में स्थापित करके उस कुमार ने सैन्य-सहित अपने नगर की और प्रयाण किया। भोजन का वक्त होने तक वे सभी एलापुर के उपवन में पहुँच गये। अतः वहां सैन्य ने पड़ाव डाल दिया। फिर स्नान, दान, पूजादि मध्याह्न का कार्य करके वह कुमार भोजनशाला में गया। वहां भाषा और वेशादि में बिल्कुल एक समान मानो एक साथ जन्मी हो, वैसी दो-दो मदनसुन्दरी को देखा। आश्चर्यचकित होते हुए वह कुमार विचार करने लगा-'क्या इसने मेरी दुगुनी भक्ति करने के लिए अपनी विद्या के प्रभाव से दो रूप धारण किये हैं? अथवा मुझे ठगने के लिए क्या किसी देव ने मेरी प्रिया के समान रूप को धारण किया है? अथवा तो दृष्टिभ्रम के कारण मैं दो चन्द्र की तरह अपनी दो प्रियाओं के रूप को देख रहा हूं।'
। इस प्रकार विचार करते हुए कुमार सैकड़ों चिन्ताओं से व्याप्त हो गया। तत्त्व व अतत्त्व के विवेचन में निपुण बुद्धि से युक्त कुमार को सूक्ष्म दृष्टि से देखने पर भी उन दोनों स्त्रियों में कोई भेद नजर नहीं आया, जिससे वह अपनी प्रिया को पहचान सके। तब उसने दोनों ही