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26/श्री दान-प्रदीप
इस प्रकार कहकर कुमार उसके समक्ष खड़ा रहा। उसे देखकर हर्षित, क्षुधातुर, दुर्बल कुक्षि से युक्त और निर्दयी राक्षस जैसे कटार हाथ में लेकर उसका छेदन करने के लिए तत्पर हुआ, वैसे ही मदनमंजरी ने, जो अपने पति के प्राणान्त की शंका के कारण हृदय के आकुल-व्याकुल होने से अपार दुःख को अनुभव करने से अपने स्थान में न रह सकने के कारण अपने पति के पीछे-2 वहां आ गयी थी, कहा-“हे पापी! ऐसा मत कर । मत कर।"
इस प्रकार बोलती हुई अपने पति व राक्षस के बीच में आकर खड़ी हो गयी। उसकी हिम्मत देखकर हर्षित होते हुए राक्षस ने कहा-"तुम कौन हो? यह पुरुष मेरा भक्ष्य है, पर तुम इसकी रक्षा क्यों कर रही हो?"
मदनमंजरी ने कहा-"ये मेरे जीवन-नाथ हैं और चार समुद्रों की मेखला से युक्त पृथ्वी के पालक हैं। इन महात्मा को तुम छोड़ दो और मुझे खाकर अपनी क्षुधा शान्त करो। मुझ जैसी अनेक स्त्रियाँ इन्हें मिल जायंगी, पर इन जैसा महापुरुष मिलना इस दुनिया में दुर्लभ है।"
राक्षस ने कहा-"हे सुन्दरी! स्त्रियों का वध करना हमारा आचार नहीं है, क्योंकि स्त्री, बालक और रोगी को अवध्य कहा गया है।"
रानी ने कहा-"आपने सत्य कहा है, पर आप इनका भक्षण करेंगे, तो मेरी मृत्यु तो निश्चित ही है, क्योंकि पति-रहित मेरा पिता के घर में या ससुराल में रहना द्वेषी पुरुष की तरह उभयलोक में कल्याणकारक नहीं है। साथ ही मुझे इसलोक में यह दुर्निवारक कलंक भी प्राप्त होगा कि इसी स्त्री ने अपने पति का राक्षस के द्वारा भक्षण करवाया। साथ ही चन्द्र के बिना कुमुदिनी की तरह पति के बिना मुझे योग और क्षेम की प्राप्ति भी नहीं हो सकती। अरे! दुर्दैव से दग्ध मेरी अब कौनसी गति होगी?"
इस प्रकार विलाप में वाचाल वह तीव्र स्वर में रुदन करने लगी। उसे इस प्रकार रोते हुए देखकर राक्षस का हृदय दयार्द्र हो गया। वह उठकर महल के भीतरी भाग में गया और वहां से एक रत्नमय दिव्य कटौरा लाकर उस मदनमंजरी को दिया व कहा-"यह कटौरा एकमात्र नरमांस के सिवाय दूसरी सभी मनोवांछित वस्तुएँ मोती, माणक, वस्त्र, सुवर्ण आदि प्रदान करता है। इस कटौरे के लिए मैंने बारह वर्ष तक उग्र तपस्या की है और औंधे मस्तक रहकर निरन्तर मंत्रजाप किया है। इससे प्रसन्न होकर नागेन्द्र ने मुझे यह कटौरा प्रदान किया है। चिन्तामणि की तरह इससे सभी वांछित वस्तुएँ तत्काल प्राप्त की जा सकती हैं। पूर्वजन्म के अभाग्य के कारण कीचड़ में सूअर की तरह मुझे नरमांस खाने का बुरा व्यसन लग गया है। छ: महीनों से मुझे मनुष्य का मांस प्राप्त नहीं हुआ है। अतः बढ़ती हुई क्षुधा मुझे गरीब की तरह अत्यन्त बाधित कर रही है। आज इस कोमल शरीरवाले मनुष्य को मैंने अपने पुण्य