Book Title: Bharatvarshiya Prachin Charitra Kosh
Author(s): Siddheshwar Shastri Chitrav
Publisher: Bharatiya Charitra Kosh Mandal Puna
View full book text
________________
अत्रि
प्राचीन चरित्रकोश
अथर्वन्
जाता है (मत्स्य. १७१.२८)। यह शिवावतार गौतम का ३. व्यासपुराण की शिष्यपरंपरा के वायु के अनुसार, शिष्य है । यह स्वायंभुव तथा वैवस्वत मन्वन्तर के सप्तर्षियों | यह रोमहर्षण का शिष्य है (व्यास देखिये)। • में से एक था । उन्नीसवें द्वापर में यह व्यास था। ऋग्वेद के एक सूक्त की दस ऋचाएं अनेक अत्रियों ने
भत्रि का धर्मशास्त्र-आनंदाश्रम के स्मृति समुच्चय में | देखी है (ऋ. ९. ८६.३१-४०)। इससे ज्ञात होता अत्रिसंहिता तथा अविस्मृति नामक दो ग्रंथ हैं। अत्रि- | है कि, अत्रिकुल के लोग भी अत्रि नाम से व्यवहृत होते संहिता में नौ अध्याय तथा चारसौ श्लोक हैं तथा अनेक | थे। प्रायश्चित्त बताये हैं । वहाँ योग, जप, कर्मविपाक, द्रव्य- अत्रि भौम-सूक्तद्रष्टा (ऋ.५. २७, ३७-४३; शुद्धि तथा प्रायश्चित्त का विचार किया गया है ।
७६, ७७, ८३-८६,९.६७. १०-१२, ८६.४१-४५: - अत्रिस्मृति में नौ अध्याय हो कर प्राणायाम, जपप्रशंसा
| १०.१३७. ४)। तथा प्रायश्चित्त बताये हैं। मनु ने गौरव के साथ इसका
अत्रि सांख्य-सूक्तद्रष्टा (ऋ. १०.१४३)। मत लिया है (३.१६) । दत्तकमीमांसा में इसके मत का उल्लेख है। इसके लध्वत्रिस्मृति तथा बृहदात्रेयस्मृति
अथर्वन्-अश्वत्थ के दानस्तुति का दान ग्रहण करनेनामक दो ग्रंथ भी उपलब्ध हैं। इसने वास्तुशास्त्र पर भी वाला (ऋ. ५. ४७.२४)। यह एक प्राचीन उपाध्याय एक ग्रंथ रचा था (मत्स्य. २५२.१-४)।
था (ऋ. १०.१२०.९)। इसीने अग्निमंथन का प्रचार किया भत्रिवंश के गोत्रकार--अर्धपप्य, उद्दालकि, करजिव्ह. | (*...
(ऋ. ६. १६.१३; तै. ब्रा. ३.५.११; वा. सं.३०.१५)। कर्णजिव्ह, कर्णिरथ, कर्दमायन शाखेय (ग),
इसके द्वारा उत्पन्न अग्नि, विवस्वत् का दूत बना (ऋ. १०. गोणीपति, गोणाय नि, गोपन (ग), गौरग्रीव, गौरजिन,
२१.५)। इसीके नाम पर से अग्नि को अथर्वन् नाम चैत्रायण, छंदोगेय, जलद, तकीबिंदु, तैलप, भदगपाद, ।
प्राप्त हुआ (ऋ. ६. १६. १३)। अग्नि को इसकी उपमा लैद्राणि, वामरथ्य, शाकलाय नि, शारायण, शौण, शौकतव
दी गई मिलती है (ऋ. १०. ८७. १२, ८. ९.७)। (शाक्रतव, शीक्रतव), सवैलेय ( सचैलेय), सौनकर्णि |
अथर्वन् का अर्थ अग्निहोत्री भी है (ऋ. ७. १. १) (शाणव-कर्णिरथ), सौपुष्पि तथा हरप्रीति (रसद्वीचि)
इसका तथा इन्द्र का स्नेह था । इन्द्र इसे सहायता करता 'ये गोत्रकार अत्रि, आर्चनानश (त्रिवराताम् ) तथा
था (ऋ. १.४८.२)।इसकी देवताओं में गणना की श्यावाश्व इन तीन प्रवरों के हैं।
गई है (बृ. उ. २.६.३, ४.६.३) । इसने इन्द्र • ऊर्णनाभि, गविष्ठिर, दाक्षि, पर्णवि, बलि, वीजवापि, |
| को उद्देशित कर के एक स्तोत्र की रचना की है (ऋ. १. भलंदन, मौंजकेश, शिरीष तथा शिलदनि, ये गोत्रकार |
८०.१६)। इसने यज्ञ कर के, स्थैर्य प्राप्त कर लिया . अत्रि, गविष्ठिर तथा पूर्वातिथि इन तीन प्रवरो के हैं।
(ऋ. १०. ९२. १०)। इसने यज्ञसामर्थ्य से मार्ग चौडा कालेय (ग), धात्रेय (ग), मैत्रेय (ग) वामरथ्य (ग)
कर लेने पर, सूर्य उत्पन्न हुआ (ऋ. १. ८३.५)। मनु . तमा सबालेय (ग) ये गोत्रकार अत्रि, पौत्रि तथा वामरथ्य,
तथा दध्यच् के साथ इसने तप किया था (ऋ. १.१०. इन तीन प्रवरों के है (मत्स्य. १९७.१-५)। अत्रिपुत्र
१६)। अथर्वागिरस् शब्द प्राप्य है (अ. वे. १०.७.२०. सोम के वंश में विश्वामित्र हुआ (मत्स्य.१९८) अत्रि का
श. ब्रा. ११.५.६७)। इसने इन्द्र को सोमरस दिया वंश अनेक स्थानों पर आया है (ब्रह्माण्ड. ३.८.७४-८७;
(अ. वे. १८. ३. ५४) । वरुण ने इसे एक कामधेनु दी वायु. ७०.६७-७८; लिङ्ग. १.६३)। अन्यत्र भी |
थी (अ. वे. ५. ११; ७. १०४)। इसका देवताओं विमागशः आया है (ब्रह्म. ९. १, ह. व. १. ३१.१२
के साथ स्नेहसंबंध होने के कारण यह स्वर्ग में रहता था
| (अ. वे. ४. १.७)। १७; प्रभाकर तथा स्वस्त्यात्रेय देखिये)।
अत्रिकुल के मंत्रकार-अत्रि, अर्चिसन, निष्ठर, पूर्वा- यह आचार्य था (श. बा. १४.५.५.२२; ७. ३. तिथि, बल्गूतक, श्यामावान् (वायु. ५९.१०४); अत्रि, |२८)। अथर्वांगिरस् ऋषि का प्रादुर्भाव वैशाली राज्य में अर्धस्वन, कर्णक, गविष्टिर, पूर्वातिथि, शावस्य (मत्स्य. | हुआ। इस शब्द का अनेकवचन पितर अर्थ से आया है १४५. १०७-८); अत्रि, अर्वसन, आविहोत्र, गविष्ठिर, I (ऋ. १०.१४.४-६; १०.१५.८)। वे स्वर्ग में रहनेपूर्वातिथि, शावाश्व (ब्रह्माण्ड. २. ३२.११३-११४)। | वाले देवता थे (अ. वे. ११.६.१३)। एक अद्भुत २. वसिष्ठगोत्र का एक प्रवर ।
| मूली से ये दैत्यनाश करते थे ( अ. वे. ४. ३७. ७)। प्रा. च. ३]