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अष्टावक्र-गीता भा० टी० स० असिन्हैं
सर्बदा-सदा +च और
+ त्वम्-न
मुक्तः मुक्त + त्वम्-तू
एवम्ही भोक्ता-भोक्ता
असिन्है ।। असि-है (किन्तु)
भावार्थ । अष्टावक्रजी कहते हैं कि हे राजन् ! धर्म और अधर्म, सुख और दुःखादिक ये सब मन के धर्म हैं, तुझ व्यापक आत्मा के नहीं। अर्थात् तेरा स्वरूप व्यापक है, उसके ये सब धर्म नहीं हैं, किन्तु परिच्छिन्न मन के सब धर्म हैं अतएव न तू कर्ता है और न भोक्ता है, किन्तु तू सर्वदा मुक्त-स्वरूप हैं ।। ६ ।।
फिर उसी वार्ता को दृढ़ करने के वास्ते अष्टावक्रजी कहते हैं
मूलम् । एको द्रष्टाऽऽसि सर्वस्य मुक्तप्रायोऽसि सर्वदा । अयमेव हि ते बन्धो द्रष्टारं पश्यसीतरम् ॥७॥
पदच्छेदः । एकः, द्रष्टा, असि, सर्वस्य, मुक्तप्रायः, असि, सर्वदा, अयम्, एवं, हि, ते, बन्धः, द्रष्टारम्, पश्यसि, इतरम् ।। अन्वयः। शब्दार्थ । | अन्वयः ।
शब्दार्थ। सर्वस्य-सबका
असि-तू है एक: एक
+ च और द्रष्टा=देखनेवाला
एवम्ही