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अष्टावक्र-गीता भा० टी० स० कोई वास्तविक सम्बन्ध नहीं है, तथापि परस्पर के अध्यास से वह सुख दुःखादिक धर्मोंवाला प्रतीत होता है । वस्तुतः आत्मा में सुख दुःखादिक तीनों काल में भी नही हैं।
इसी वार्ता को अष्टावक्रजी जनकजी के प्रति कहते हैं कि हे जनक ! तू ब्राह्मण आदि जातियोंवाला नहीं है, और तू वर्णाश्रम आदिक धर्मोंवाला है, और न तू किसी चक्षुरादि इन्द्रिय का विषय है, किन्तु त इन सबका साक्षी और असंग है एवं तू आकार से रहित है और तू संपूर्ण विश्व का साक्षी है-ऐसा तू अपने को जान करके सुखी हो अर्थात् संसाररूपी ताप से रहित हो ।।५।।
जनक जी कहते हैं कि हे भगवन् ! वेद ने जो वर्णाश्रमों के धर्म करने का विधान किया है, उनके त्याग करने से भी पुरुष पातकी होता है, और बिना अपने को कर्ता माने वे धर्म हो नहीं सकते हैं, अतएव यह "उभयतः पाशा रज्जु"- न्याय का प्रसंग कैसे दूर हो ? ___अष्टावक्रजी कहते हैं कि हे राजन् ! वेद ने जितने वर्णाश्रमादिकों के धर्म कहे हैं, वे सब अज्ञानी मूर्ख के लिये कहे हैं, वे ज्ञानी के और मुमुक्षु के लिये नहीं हैं
ज्ञानामृतेन तृप्तस्य कृतकृत्यस्य योगिनः । नैवास्ति किञ्चित्कर्त्तव्यमस्ति चेन्न स तत्त्ववित्॥१॥
जो आत्म-ज्ञान-रूपी अमृत करके तृप्त है और जो आत्म ज्ञान करके कृतकृत्य हो चुका है, उसको कुछ भी करने योग्य कर्म बाकी नहीं है। यदि वह अपने को कर्म करने योग्य माने, तो वह आत्मवित् नहीं है। ऐसे ही अनेक वाक्य ज्ञानी