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अष्टावक्र-गीता भा० टी० स०
चला जाता है वैसे ही अंत:करण के साथ आत्मा का तादात्म्य अध्यास होने से जब आत्मा के चेतन आदिक धर्म अंतःकरण में आ जाते हैं, और अंतःकरण के कर्त्त त्व भोक्तत्वादिक धर्म आत्मा में चले जाते हैं, तब पुरुष अपने आत्मा को कर्ता और भोक्ता मानने लग जाता है और उसी से जन्म-मरण-रूपी बंधन को प्राप्त होता है । जब आत्म-ज्ञान करके अपने को अकर्ता, अभोक्ता, शुद्ध और असंग मानता है और कर्त्त त्वादिक अंतःकरण का धर्म मानता है, तब स्वयं साक्षी होकर अंत:करण का भी प्रकाशक होता है, और तब ही अध्यास का नाश हो जाता है । अध्यास के नाश का नाम ही मुक्ति है । इसके अतिरिक्त मुक्ति कोई वस्तु नहीं है ।। ४ ।।
जनकजी कहते हैं कि हे भगवन् ! नैयायिक एवं और भी आत्मा को कर्त्ता, भोक्ता और सुख दुखादिक धर्मोंवाला मानते हैं। एवं पुरुष भी कहता है-मैं कर्ता हूँ अर्थात् यज्ञादिक कर्मों का कर्ता और उनके फलों का भोक्ता भी अपने को मानता है । तब फिर यह जीवात्मा अकर्ता और अभोक्ता होकर मुक्त कैसे हो सकता है ? इसके उत्तर को अष्टावक्रजी कहते हैं
न त्वं विप्रादिको वर्णो नाश्रमी नाक्षगोचरः । असङ्गोऽसि निराकारो विश्वसाक्षी सुखी भव ॥५॥
पदच्छेदः। न, त्वम्, विप्रादिकः, वर्णः, न, आश्रमी, न, अक्षगोचरः, असंगः, असि, निराकारः, विश्वसाक्षी, सुखी, भव ॥