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स्थिति, वही आत्मानुभव है।
जो चिंता-दुःख होते हैं, वे परवस्तु में हैं, खुद में नहीं हैं, ज्ञानी यह भान करवा देते हैं, उसके बाद ऐसी दृढ़ प्रतीति बैठ जाती है कि आत्मा को कुछ भी नहीं होगा।
'एक्ज़ेक्ट' रूप में आत्मा प्राप्त होने के बाद मात्र डिस्चार्ज कर्म ही बाकी रहते हैं, संवरपूर्वक की निर्जरा (दोबारा कर्म बीज नहीं डलें और कर्म फल पूरा हो जाए) ही होती है, फिर बंध नहीं पड़ता। कर्म की सत्ता कब तक है कि जब तक उसे 'खुद' आधार देता है, वह आधार हट जाए तो कर्म 'न्यूट्रल' बन जाते हैं। आधार किस तरह से देते हैं कि करता है उदयकर्म और कहता है कि 'मैंने यह किया', यह अज्ञानता से है! 'ज्ञानीपुरुष' संसार की सभी क्रियाएँ करने के बावजूद भी 'मैं कुछ भी नहीं करता हूँ' सतत ऐसे ख़याल सहित आत्मा में ही रहते हैं। जब कि अज्ञानी, 'मैं करता हूँ' के ख़याल से एक क्षण भी बाहर नहीं होता!
'जिसने आत्मा को जाना, उसने सर्व जाना।' जिन्हें आत्माज्ञान है, वे कारण सर्वज्ञ, कारण केवळज्ञानी कहलाते हैं! आत्मज्ञानी निराग्रही, निअहंकारी होते हैं। _ 'मैं शरीर नहीं हूँ, मैं शरीर नहीं हूँ, मैं आत्मा हूँ, मैं आत्मा हूँ' ऐसे गाते रहने से कुछ भी नहीं होता। इसके लिए तो आत्मा का अनुभव होना चाहिए। आत्मज्ञान प्राप्त करने के आज तक जो-जो साधन किए, वे सभी बंधनरूप हो गए। सत्साधन यानी कि प्रत्यक्ष प्रकट 'ज्ञानीपुरुष' का सेवन हो (के सानिध्य में रहकर ज्ञान को समझे) तभी छुटकारा होता है ! साधन तो मात्र ज्ञान तक ले जा सकते हैं, जब कि आत्मा तो 'विज्ञान स्वरूप' है। आत्मा इस देह के, घरों के, लाख दीवारों के भी आरपार जा सकता है, ऐसा सूक्ष्मतम है। वह किस तरह से मिल पाएगा? चाहे कितनी भी कठोर तपश्चर्या या साधना करें फिर भी आत्मसाक्षात्कार होना कठिन है। आधे मील की दूरी पर स्टेशन हो और खुद उल्टे रास्ते बाईस मील चले तो उसमें भूल किसकी? रास्ता भूले, उसमें देह की क्या भूल? भूल तो
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