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आप्तवाणी-८
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दादाश्री : ऐसी सब भिन्नता होती ही है न! स्वाभाविक रूप से इनमें भिन्नता होती है। ताड़ी सफेद दिखती है लेकिन पीएँ तब चढ़ती जाती है और पानी का नशा नहीं चढ़ता । कोई भी चीज़ अपना प्रभाव बताए बगैर रहती नहीं है न!
प्रश्नकर्ता : हर एक तरह के जीव के या मनुष्य के आहार में भिन्नता रखी है।
दादाश्री : भिन्नता है ही, हर एक वस्तु मात्र में भिन्नता है। दो राई के दाने होते हैं न, उनमें भी भिन्नता है।
प्रश्नकर्ता : यह भिन्नता किसलिए उत्पन्न हुई ? यह नहीं होती तो सुख होता।
दादाश्री : हाँ, लेकिन ये तो सारी कल्पनाएँ हैं न ! यह बुद्धि है न, वह कल्पना करवाती है कि 'ऐसा नहीं होता तो, ऐसा होता तो ऐसा हो जाता।' लेकिन ये शब्द ही 'डिक्शनरी' में से निकाल देने चाहिए। ऐसा होता तो ऐसा हो जाता' ये शब्द ही नहीं होने चाहिए, 'डिक्शनरी' में कभी भी रखना ही मत ।
प्रश्नकर्ता : तो यह भिन्नता आत्मा-परमात्मा ने उत्पन्न की? जानबूझकर किया या अपने आप हो गया?
दादाश्री : नहीं, भिन्नता है ही नहीं । उसे दिखता है, वह उसकी ' रोंग बिलीफ़' ही है। जैसे कि एक मनुष्य ने यहाँ पर सुबह कोई पुस्तक पढ़ी हो और उसमें कोई भूत की बात पढ़ने में आई हो और रात को जब वह अकेला हो और रूम में सोने गया और दूसरे रूम में चूहे ने कोई प्याला खड़काया कि तुरन्त वह डर जाता है। अब जब से उसके मन में भूत घुसा, तो जब तक वह निकलता नहीं है, तब तक उस पर भूत का असर रहता है, ऐसे ये असर हैं ।
प्रश्नकर्ता: सृष्टि के अंदर भी जीवमात्र में भेद डाले हैं?
दादाश्री : जीवमात्र में भेद है ही नहीं। सभी जीव एक ही स्वभाव