________________
१३४
आप्तवाणी-८
देगा। कान से अन्य कुछ भी नहीं सुने तो नादब्रह्म सुनाई देगा, लेकिन दूसरा सब तरह-तरह का सुनने की इच्छाएँ तो बहुत सारी हैं। यह जानना है, वह जानना है, यह सुनना है और वह सुनना है! कोई ऐसे ही बात करने बैठे कि तुरन्त पूछेगा कि 'क्या हुआ? क्यों हुआ?' अब नादब्रह्म तो, ऐसी सभी इच्छाएँ खत्म हो जाएँगी तब नादब्रह्म आसानी से सुनाई देगा। यह तो सहजस्वभाव है। फिर भी नादब्रह्म, आत्मा नहीं है। यह तो एक प्रकार का बाजा बजता है, एकाग्रता करने का साधन है। आत्मा तो इससे भी आगे, बहुत दूर है।
प्रश्नकर्ता : इस नादब्रह्म की कक्षा के साथ आध्यात्मिक विकास का कोई संबंध है क्या?
दादाश्री : हाँ, है न। आध्यात्मिक विकास के लिए एकाग्रता की ज़रूरत है, और इसमें से एकाग्रता उत्पन्न होती है। नादब्रह्म से बहुत अच्छी एकाग्रता उत्पन्न होती है। एकाग्रता उत्पन्न हो जाए तो अध्यात्म शुरू हो जाता है, नहीं तो अध्यात्म शुरू ही नहीं होता न! बाकी, आत्मा तो इससे भी बहुत दूर है!
प्रश्नकर्ता : जो शब्दब्रह्म है, इस शब्द के अंदर ही सब अलगअलग तरह से बात करते हैं, लेकिन शब्द का स्फोट होना चाहिए।
दादाश्री : स्फोट हो चुका है। उन्हें शब्द का स्फोट हो ही चुका होता है। यदि सही होगा, यदि वे अनुभव करवानेवाले होंगे तो उनमें शब्द का स्फोट हो ही चुका होगा। बाकी, जो शब्द अनुभव नहीं करवाते, वे सभी शब्द गलत है। और जहाँ पर शब्द भी नहीं होता, वह अंतिम बात है, निरालंब। निरालंब, वहाँ पर शब्द भी नहीं होता। लेकिन शब्द स्वरूप प्राप्त होने के बाद मनुष्य निरालंब बनता है।
अहो! अहो उस दृष्टि को
प्रश्नकर्ता : ब्रह्ममय स्थिति हो जाती है तब सभी एक दिखते हैं। स्त्री, स्त्री नहीं दिखती, पुरुष, पुरुष नहीं दिखता, सभी ब्रह्मस्वरूप दिखते हैं।