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आप्तवाणी-८
क्या हितकारी नहीं है, उसका विवेक रखना पड़ेगा। हितकारी को हमें ग्रहण करना चाहिए, और अहितकारी से दूर रहना चाहिए, इसमें पहले विवेक रखना पड़ेगा।
यह 'चंदूभाई' यह तो व्यवहार में रहने के लिए नाम है। आप सिर्फ चंदूभाई ही नहीं हो, इस स्त्री के पति भी हो, इन बच्चों के पिता हो, इनके मामा हो, इनके चाचा हो' ऐसे कितने ही लफड़े हैं? ये लफड़े और अध्यात्म में बहुत दूरी है। ये लफड़े नहीं हों, तभी अध्यात्म हो पाएगा। अब लफड़े छोड़ने से छूट सकें, ऐसे नहीं है। हम छोड़ना चाहें, उससे क्या छूट जाएँगे? यहाँ पर आ जाओगे तो भी वे लफड़े वापस बुलाने आएँगे यहाँ पर, वे लफड़े छोड़ेंगे क्या?
यानी 'मैं चंदूभाई हूँ', वह व्यवहार से ठीक है, लेकिन वास्तव में वैसा नहीं है। तो 'हम वास्तव में क्या हैं', इसे जानना चाहिए न? सही तरीक़ा अपने साथ आएगा और व्यवहार तो यहीं पड़ा रह जाएगा। नाम तो सब यहीं पर रह जाएगा न? आप तो अनामी हो।
अब, सम्यक्दर्शन हो जाएगा, तब अध्यात्म में आया हुआ कहलाएगा, वर्ना तब तक अध्यात्म में आया ही नहीं है। फिर भले ही वह कितनी ही पुस्तकें पढ़े तो भी वह अध्यात्म में नहीं आ पाएगा। सम्यक्दर्शन हो जाए, 'जैसा है वैसा' दर्शन हो जाए तब अध्यात्म में आता है। यानी कि ये सारी 'रोंग बिलीफ़' फ्रेक्चर हों, तब 'राइट बिलीफ़' बैठती है।
प्रश्नकर्ता : 'राइट बिलीफ़' के लिए मुझे क्या करना चाहिए? उसके लिए 'मैं शरीर नहीं हूँ, मैं शरीर नहीं हूँ', ऐसा बोलना चाहिए?
दादाश्री : ऐसा नहीं, उससे कुछ नहीं होगा। अगर ऐसा करोगे तो पागल हो जाओगे और लोग भी आकर पूछेगे कि, 'अरे, शरीर नहीं है तो क्या है फिर?' ऐसा नहीं करना है। कई लोग ऐसा करते हैं, वे पागल हो गए हैं।
प्रश्नकर्ता : तो 'मैं एक आत्मा हूँ' ऐसा कहना चाहिए?