________________
आप्तवाणी-८
२८३
काम हो गया, लोग निंदा करें, ऐसा काम हो गया, उस समय तुझे 'मैं शुद्धात्मा हूँ' ऐसा लक्ष्य चूकना नहीं चाहिए, 'मैं अशुद्ध हूँ' ऐसा कभी भी मत मानना। ऐसा कहने के लिए 'शुद्धात्मा' कहना पड़ता है। 'तू अशुद्ध नहीं हुआ है' इसलिए कहना पड़ता है। हमने जो शुद्धात्मापद दिया है, वह शुद्धात्मापद-शुद्धपद, फिर बदलता ही नहीं। इसलिए शुद्ध शब्द रखा है। अशुद्ध तो, यह देह है इसलिए अशुद्धि तो होती ही रहेगी। किसीको अधिक अशुद्धि होती है, तो किसीको कम अशुद्धि होती है, ऐसा तो होता ही रहेगा।
और उसका फिर उसके खुद के मन में घुस जाता है कि 'मुझे तो दादा ने शुद्ध बनाया फिर भी यह अशुद्धि तो अभी तक बाकी है', और ऐसा यदि घुस गया तो फिर बिगड़ जाएगा।
कर्ताभाव में बरतने से कर्मबंधन प्रश्नकर्ता : अगर किसीने शुद्धात्मा का ज्ञान लिया हो और उसे कोई थप्पड़ मारे और वह वापस थप्पड़ मार दे, तो फिर उस पर ज्ञान का असर नहीं हुआ, ऐसा समझें? या उसका शुद्धात्मापन कच्चा है, ऐसा समझें?
दादाश्री : शुद्धात्मा का ज्ञान कच्चा रह गया, ऐसा नहीं कह सकते। प्रश्नकर्ता : तो फिर उसने किसलिए थप्पड़ मारा वापस?
दादाश्री : जब थप्पड़ मारा न, उस समय 'वह' जुदा ही होता है। और 'उसके' मन में पछतावा होता है कि ऐसा नहीं होना चाहिए, ऐसा क्यों हो रहा है?' यह 'ज्ञान' ऐसा है कि अपनी खुद की एक भी भूल हुई हो तो तुरन्त ही पता चल जाता है और भूल हुई ऐसा पता चले न, तब पछतावा होता ही है।
और यह जो हुआ, उसमें ज्ञान का और उसका कोई लेना-देना नहीं है। ये सभी उसके डिस्चार्ज भाव हैं।
प्रश्नकर्ता : शुद्धात्मा हो चुका हो, यह ज्ञान लिया हुआ हो और 'परफेक्ट' हो, तो वह हमें उसके आचरण से कैसे पता चलेगा?