Book Title: Aptavani Shreni 08
Author(s): Dada Bhagwan
Publisher: Dada Bhagwan Aradhana Trust

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Page 351
________________ ३१२ आप्तवाणी -८ (अल्कोहल) भी पीता है न, तब लोग उसकी शराब को भला-बुरा कहते हैं। अरे, उस शराब को क्यों भला-बुरा कहते हो ? 'कर्म का कर्ता' कौन? वास्तविकता जानने के बाद कुछ भी जानना बाकी नहीं रहता । फिर ‘खुद' ज्ञाता-दृष्टा, परमानंदी और सानतन सुख का स्वामी बन जाता है, फिर कोई मालिकीपन नहीं रहता । और फिर इस संसार में जो सुख दिखते हैं, वे सभी आरोपित सुख हैं। 'आत्मा' की ओर तो निरा सुख ही है, लेकिन 'आपने' बाहर सब जगह आरोपण किया है कि इन चीज़ों में सुख है, इसमें सुख है, इसलिए उसमें 'आपको' सुख मिलता है, लेकिन सुख उनमें नहीं होता । सुख खुद के स्वभाव में है I प्रश्नकर्ता : तो इस भ्रांति को रोके कौन? दादाश्री : इस भ्रांति को 'ज्ञानीपुरुष' रोक सकते हैं I प्रश्नकर्ता : मैं अभी आपसे ज्ञान लेकर जाऊँ, फिर कल जाकर अंदर जो भ्रांति है, वह वापस वही का वही करवाएगी न कि, 'नहीं भाई, तुझे यह करना ही चाहिए, नहीं तो तेरा काम नहीं चलेगा ।' I दादाश्री : नहीं, ऐसा नहीं है । फिर तो प्रकाश हो जाएगा न ! ऐसा है न, वे सेठ शाम को इतनी सी ही पीकर बैठ जाएँ तो फिर क्या कहते हैं कि, ‘मैं तो फ़लाना राजा हूँ ।' ऐसा किसलिए बोलता है? वह सेठ पागल हो गया है? नहीं! शराब के नशे ( अमल) से उसे भ्रांति उत्पन्न हो गई है। प्रश्नकर्ता : वह जिस परिस्थिति में आ गया है, उसमें उसे आत्मा ने रखा या भ्रांति ने रखा? और आत्मा क्या उसे कंट्रोल नहीं कर सकता? दादाश्री : आत्मा को इसमें लेना-देना है ही नहीं । यह सब तो अहंकार का ही है । जो भोगता है, वह अहंकार ही भोगता है । यह दुःख भोगता है, वह भी अहंकार है और जो सुख भोगता है, वह भी अहंकार I

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