Book Title: Aptavani Shreni 08
Author(s): Dada Bhagwan
Publisher: Dada Bhagwan Aradhana Trust

View full book text
Previous | Next

Page 356
________________ आप्तवाणी-८ अब यदि कोई व्यक्ति कहे कि, 'चोरी करनी ही चाहिए' और वह चोरी करता हो, रिश्वत लेता हो, लोगों के साथ अच्छी-अच्छी बातचीत करे और कहे कि, ‘मैं ऐसा कर दूँगा, मैं वैसा कर दूँगा, तेरा सभी काम पूरा कर दूँगा ।' और उससे हज़ार रुपये रिश्वत लेता है, ये सारे कार्य जो करता है, वह प्रतिष्ठित आत्मा है । यह योजना थी जो रूपक में आई है। वह जो बातें करता है वह भी रूपक है, उसे जो रिश्वत देनेवाला मिला वह भी रूपक है, और हज़ार रुपये लेता है वह भी रूपक है। रिश्वत लेता है, रिश्वत लेने के भाव, उसका वह 'डिसाइडेड' है और वह भी राज़ी - खुशी से लेता है । लेकिन बाद में अगर मन में भाव हो, अब इसने 'ज्ञान' नहीं लिया है, और यदि इसे ऐसा भाव हो कि, 'ये सब रिश्वत लेकर भुगतना तो मुझे ही पड़ेगा न? यह रिश्वत नहीं लेनी चाहिए ।' यह अगले जन्म के प्रतिष्ठित आत्मा में 'रिश्वत नहीं लेनी चाहिए', ऐसी योजना बन गई। तो अगले जन्म में फिर वह रिश्वत नहीं लेगा । आपको समझ में आती है यह रूपरेखा ? ३१७ अब कुछ लोग ऐसे हैं जो रिश्वत नहीं लेते। उस व्यक्ति को उसके घर पर उसकी पत्नी कहती है, 'ये आपके साथ में जो लोग पढ़ते थे, उन सबने बंगले बनवा दिए, आप अकेले ही किराए के मकान में रहते हो ।' तब फिर उसे लगता है कि 'यह तो मेरी भूल है या क्या है यह?' वह खुद के सिद्धांत को सही मानता है, उसे खुद को श्रद्धा है कि मेरा सिद्धांत गलत नहीं है, यह सिद्धांत सुखदायी है, यह सब वह जानता है। जब उसकी पत्नी उसे ऐसा कहती है, तब उसके मन में ऐसा होता है कि, ‘रिश्वत नहीं लेता हूँ, यह मेरी भूल हो रही है ।' तब कुबुद्धि घेर लेती है कि, 'भाई, अपने को उसका काम करना ही है, तो फिर रिश्वत लेने में क्या हर्ज है?' उसके बाद वह यह भाव करता है कि रिश्वत लेनी ही चाहिए। इसलिए फिर वह उस व्यक्ति से कहता है कि, 'मैं तेरा काम कर दूँगा।' तब वह आदमी कहता है, ‘साहब, मैं पाँच सौ रुपये दूँगा।' लेकिन जब वह पैसे देने आता है, तब उससे लिया नहीं जाता, अंदर घबराहट हो जाती है, परेशानी हो जाती है। क्योंकि पूर्व जन्म में प्रतिष्ठा की है कि, 'रिश्वत लेना गलत है, रिश्वत लेनी ही नहीं चाहिए', वह रिश्वत नहीं लेने देती । वह

Loading...

Page Navigation
1 ... 354 355 356 357 358 359 360 361 362 363 364 365 366 367 368