Book Title: Aptavani Shreni 08
Author(s): Dada Bhagwan
Publisher: Dada Bhagwan Aradhana Trust

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Page 364
________________ आप्तवाणी-८ ३२५ बंद कर दें तो खत्म हो जाएगा। वह प्रतिष्ठित आत्मा जो कुछ करता है उसमें 'आप' 'मैं करता हूँ' ऐसा अहंकार करते हो, उससे फिर दूसरा नये जन्म का प्रतिष्ठित आत्मा तैयार होता है। ऐसा है न, मूल असल आत्मा को कुछ भी नहीं हुआ है। यह तो लोगों ने अज्ञान का प्रदान किया न, इसलिए सभी संस्कार उत्पन्न हो गए हैं। जन्म लेते ही लोग 'उसे' 'चंदू, चंदू' करते हैं। अब उस बच्चे को तो पता भी नहीं होता कि ये लोग क्या कर रहे हैं? लेकिन ये लोग उसे संस्कार देते रहते हैं। फिर 'वह' मान बैठता है कि 'मैं चंदू हूँ।' फिर जब बड़ा होता है, तब कहता है, 'ये मेरे मामा हैं और ये मेरे चाचा हैं।' इस तरह से यह सारा अज्ञान प्रदान किया जाता है। उससे भ्रांति उत्पन्न हो जाती है। इसमें होता क्या है कि आत्मा की एक शक्ति आवृत हो जाती है, दर्शन नाम की शक्ति आवृत हो जाती है। उस दर्शन नाम की शक्ति के आवृत होने से यह सब उत्पन्न हो गया है। वह दर्शन जब फिर से ठीक हो जाता है, सम्यक् हो जाता है, तब वापस 'खुद' खुद के 'मूल स्वरूप' में बैठ जाता है। यह दर्शन मिथ्या हो गया है और इसलिए ऐसा मान बैठा है कि इस भौतिक में ही सुख है, वह दर्शन ठीक हो जाएगा तो भौतिक सुख की मान्यता भी खत्म हो जाएगी। और कुछ ज़्यादा बिगड़ा ही नहीं है, दर्शन ही बिगड़ा है, दृष्टि ही बिगड़ी है। उस दृष्टि को हम पलट देते हैं। प्रश्नकर्ता : यानी कि आत्मा को सिर्फ भ्रांति ही हुई है? दादाश्री : आत्मा को भ्रांति नहीं, यह तो सिर्फ उसका दर्शन ही आवृत हो गया है। मूल आत्मा का जो दर्शन है, वह पूरा दर्शन ही आवृत हो गया है। बाहर के इस अज्ञान प्रदान से! जन्म लेते ही ये बाहरी लोग 'उसे' अज्ञान देते हैं। वे खुद तो अज्ञानी हैं और बच्चे को भी अज्ञान के रास्ते पर ले जाते हैं। इसलिए वह ऐसा मान बैठता है और मान बैठता है इसलिए दर्शन आवृत हो जाता है। दर्शन आवृत हो जाता है इसलिए कहता है कि 'ये मेरे ससुर है और ये मेरे मामा हैं।' और मैं कहता हूँ कि ये सारी रोंग बिलीफें हैं।

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