________________
३२०
आप्तवाणी
-८
हूँ? कि मुझे आनंद हुआ था, मुझे जगत् विस्मृत हो गया था और सबकुछ देखा मैंने कि, ‘जगत् क्या है, कौन करता है, किस तरह से चलता है, आप कौन हो, मैं कौन हूँ?' वह सारा विवरण मैंने जाना। लेकिन यह सब मैं आपको शब्दों द्वारा समझा रहा हूँ। लेकिन मूल वस्तु तो आप जान ही नहीं सकोगे। क्योंकि वहाँ पर शब्द नहीं हैं। विस्तारपूर्वक वाणी में आ नहीं सकता। यह तो शब्द जितने बोले जा सकते हैं, उतने बाहर के भाग की मैं आपसे बात कर रहा हूँ, यह मूल वस्तु तो नहीं है न! वह तो आप चखोगे तब, उस जगह पर आप पहुँचोगे, तब आपको पता चलेगा कि क्या था ?
आत्मा सूक्ष्मतम वस्तु है, उस आत्मा के जो बाहरवाले प्रदेश हैं, वे सूक्ष्मतर हैं, उस सूक्ष्मतर तक का हमने वहाँ पर सबकुछ देखा है। अब, वाणी सूक्ष्मतर नहीं है, इसलिए वहाँ पर तो वाणी बंद हो जाती है, वाणी रुक जाती है सारी । इसीलिए ऐसा कहना पड़ता है कि तू चख अनुभव में। इसीलिए अनुभव का कहा है न कि जानने से जाना जा सके ऐसा नहीं है, अनुभव से जाना जा सकता है । निबेड़ा भी अनुभव से ही है!
आत्मा से आत्मा का दर्शन ?
प्रश्नकर्ता : लेकिन दादा, ऐसा कहा गया है कि आत्मा को, आत्मनिष्ठ आत्मा से आत्मा को देखो, आत्मा से आत्मा का दर्शन कर, इसका क्या मतलब है?
दादाश्री : 'आत्मा से' यानी कि यह जिसे 'व्यावहारिक आत्मा' माना है न, उसीसे 'तू' ‘आत्मा' को देख, ऐसा कहा है। लेकिन बीच में निमित्त को ला। जिसने देखा है उस निमित्त को ला । वे तेरा 'एडजस्टमेन्ट' ऐसा कर देंगे, कि जिससे तुझे फल मिलेगा । बाकी यों खुद अपने आप देखने जाएगा तो कुछ भी नहीं हो पाएगा। क्योंकि तेरे पास इन्द्रियगम्य दृष्टि ही है न! और वहाँ पर अतीन्द्रिय की आवश्यकता है। जब तक 'ज्ञानीपुरुष' इन्द्रियगम्य दृष्टि नहीं छुड़वा देते और अतीन्द्रिय भाग दे नहीं देते, दृष्टि नहीं बदल देते, तब तक दिखेगा नहीं । अतः 'हम' दृष्टि बदल देते हैं !