________________
३१०
आप्तवाणी-८
मिक्सचर हो गया। वह जड़शक्ति ही अब ऊपर चढ़ बैठी हैं, उससे छूटना हो तो भी छूटा नहीं जा सकता। वह तो ज्ञानी के पास जाए तब छूटता है, नहीं तो लाख जन्मों तक भी वह छूटता नहीं है। इसके बजाय लोहे की सांकल होती तो काटकर छूट जाते, लेकिन यह सांकल तो टूटती नहीं है न! और जैसे शराब पीने पर उसका अमल चढ़ता है, उसी तरह यहाँ पर अहंकार का अमल है। उससे गाड़ी चलती रहती है।
प्रश्नकर्ता : अमल भले ही है, फिर भी आत्मा तो शुद्ध ही रहा है न?
दादाश्री : ऐसा है, आत्मा बिल्कुल उदासीन है। जब तक 'आप' 'अहंकार' में हो, तब तक 'आत्मा' उदासीन है। आत्मा का इसमें राग भी नहीं और द्वेष भी नहीं है। वह तो क्या कहता है कि 'जब तुझे अनुकूल आए तब मेरे पास आना। जब तेरा सारा हिसाब साफ हो जाए, तुझे जोजो अच्छा लगता है वह सब पूरा हो जाए तब आना।' आपको समझ में आया न?
प्रश्नकर्ता : मेरा कहने का मतलब यह है कि जब आत्मा शुद्ध था, तो फिर शुद्ध को कोई अशुद्ध कर ही नहीं सकता, तो यह अशुद्ध क्यों हो गया?
दादाश्री : वह अशुद्ध हुआ ही नहीं। सिर्फ उसकी एक शक्ति, दर्शनशक्ति आवृत हो गई है। जैसे कि ये सेठ अभी शुद्ध ही हैं और अगर दारू पी लें तो उनकी कोई एक शक्ति आवृत हो जाती है, जिससे वे उल्टासुल्टा बोलने लगते हैं। उसी तरह ये 'मैं चंदूभाई हूँ' बोलते हैं। लोगों ने 'आपको' 'चंदूभाई' कहा और 'आपने' मान लिया, इसलिए एक शक्ति आवृत हो गई। वह आवृत हुई इसलिए यह उल्टा हुआ है। उसका नशा अगर कोई उतार दे तो ठीक हो जाएगा। इसमें और क्या हुआ है भला?
और कुछ हुआ ही नहीं है न। जैसा सेठ का हुआ है, वैसा ही हो गया है। सेठ पर आवरण आता है या नहीं आता? सारी समझ आवृत हो जाती है न! ऐसा ही यह हुआ है।