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आप्तवाणी-८
चाहिए, राग-द्वेष होने ही नहीं चाहिए। राग-द्वेष बंद करने की प्रेक्टिस करने से वे बंद नहीं होते। उन्हें बंद करने की प्रेक्टिस करते रहें और राग-द्वेष बंद हो जाएँ, ऐसा कभी होगा नहीं। वीतराग, वह तो दृष्टि है! अभी आपकी यह दृष्टि राग-द्वेषवाली है, और हमारी वीतराग दृष्टि है। यानी कि सिर्फ दृष्टि का फ़र्क है। पूरा दृष्टि का ही फ़र्क है। और 'ज्ञानीपुरुष' आसानी से इस दृष्टि को बदल देते हैं! उसके बाद मुक्ति का अनुभव होता है!
दृष्टि बदले बिना सबकुछ व्यर्थ प्रश्नकर्ता : मैं यह पूछ रहा था कि दृष्टि मिटे लेकिन वृत्ति रहे तो उसका क्या?
दादाश्री : दृष्टि किस तरह से मिटेगी? नहीं, कोई ऐसा रास्ता नहीं है कि दृष्टि मिटे। वृत्ति मिट सकती है, लेकिन दृष्टि नहीं मिट सकती। दृष्टि के कारण तो यह पूरा जगत् उलट-पलट हो गया है! कौन-सी दृष्टि? तब कहे, 'उल्टी दृष्टि ।' 'जैसा है वैसा' दिखता नहीं है। इसलिए फिर 'उसे' जैसा दिखता है, उसमें वह' तन्मयाकार रहता है। वृत्तियाँ तो सभी टूट जाती हैं और फिर नई वृत्तियाँ आती हैं, लेकिन जब तक दृष्टि नहीं बदलती न, तब तक वृत्तियाँ बदलती रहती है। इसलिए कुछ फ़ायदा नहीं हुआ है। अरे! साधु बने, खाना, खट्टा-मीठा कुछ भी याद ही नहीं आए, वे सभी वृत्तियाँ टूट जाएँ, फिर भी दृष्टि बदले बिना कुछ भी नहीं हो पाता।
अपने यहाँ ऐसे कितने ही संत हैं कि जिनके पास हम बैठें न, तो अरे वाह...अपने मन में एकदम आनंद हो जाता है! तब हमें ऐसा लगता है कि अरे वाह! ये संत कैसे होंगे? क्योंकि बर्फ का स्वभाव है कि हर एक को ठंडक देता ही है। अब वे संत ठंडक देंगे उससे आप ऐसा नहीं समझेंगे कि यहाँ पर कुछ है? जब कि मैं कहूँगा कि वहाँ पर कुछ भी नहीं है। क्योंकि वे वृत्तियों को मारते रहे हैं। उन वृत्तियों को मारा इसलिए स्थिरता हो गई, और स्थिरता हो गई, इसलिए वे लोगों को हेल्पफुल रहते हैं, लेकिन उन्हें तो फिर से अस्थिर करना पड़ेगा, तभी काम होगा। अब दुनिया को यह सब किस तरह से पता चले?