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आप्तवाणी-८
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माया से मुक्त कर देते हैं, नहीं तो यह माया जाए ही नहीं न!
शुद्धता की शंका का शमन किस तरह? प्रश्नकर्ता : पुद्गल और आत्मा जब अलग होते हैं, तब मुक्त होते हैं न?
दादाश्री : पुद्गल को कुछ लेना-देना नहीं है। जब आत्मा खुद का स्वरूप समझ ले, उसका भान हो जाए, तब प्रकट होता है, और उसे चख लिया तो काम हो जाता है। यानी कि आत्मा का और पुद्गल का लेनादेना नहीं है। ये 'चंदभाई' तो आत्मा से बाहर हैं। आत्मा से तो कितने ही दूर गए, तब 'मैं चंदूभाई हूँ' ऐसा बोलते हैं।
पूरे संसारकाल में आत्मा, आत्मा ही रहा है और किंचित् मात्र भी चला नहीं है। ठेठ अंत में जब मोक्ष में जाने का समय आता है न, तब भी गतिसहायक तत्व उसे ले जाता है। उसमें आत्मा, आत्मा ही रहता है। मेरा कहना यह है कि आत्मा को कुछ अड़चन नहीं पड़ सकती, ऐसा यह संसारकाल है। लेकिन वह तो अंदर अहंकार खड़ा हो जाता है, वही सबकुछ वेदता है, शाता (सुख परिणाम) का वेदन करता है और अशाता (दुःख परिणाम) का भी वेदन करता है। इस वेदन से ही उत्पन्न हो गया है यह सब। रोंग बिलीफ़ उत्पन्न हो गई है। आत्मा बदला नहीं है, आत्मा बिगड़ा नहीं है। यहाँ पर हम उसकी भ्रांति को खत्म कर देते हैं और आत्मा तो संपूर्ण ही दे देते हैं।'
कोई पूछे कि, 'अज्ञानी का आत्मा महावीर भगवान जैसा ही है?' हाँ! द्रव्य, गुण, पर्याय से सर्वथा वैसा ही है। लेकिन जब तक उसका अहंकार जाता नहीं, तब तक निःशंकता उत्पन्न नहीं होती न! क्योंकि शंका करनेवाला अहंकार ही है। अतः जब तक यह अहंकार है, तब तक कोई जीव निःशंक हो ही नहीं सकता और उसकी शंका जाती नहीं। 'ज्ञानीपुरुष' के बिना किसीकी शंका नहीं जा सकती। जब 'ज्ञानीपुरुष' शंका को निर्मूल कर देते हैं, तब वह नि:शंक हो जाता है।