Book Title: Aptavani Shreni 08
Author(s): Dada Bhagwan
Publisher: Dada Bhagwan Aradhana Trust

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Page 341
________________ ३०२ आप्तवाणी-८ दादाश्री : फिर शरीर को दु:ख किस तरह से होगा? इस समय अभी तो इसमें अहंकार है। इस शरीर को 'मैं हूँ और मेरा है' ऐसे कहता है। और वही यह सब दु:ख भोग रहा है, यानी कि अहंकार का ही है यह सब। प्रश्नकर्ता : लेकिन अहंकार तो जड़ है। दादाश्री : अहंकार जड़ नहीं है, वह मिश्रचेतन है। प्रश्नकर्ता : मिश्रचेतन का मतलब क्या है, वह समझ में नहीं आया। दादाश्री : मिश्रचेतन अर्थात् चेतन के भाव इसके अंदर पड़े हुए हैं। वे चेतन के भाव और यह जड़ दोनों मिलकर, मिक्सचर बन गया है, इसलिए मिश्रचेतन कहलाता है। और मन, वह जड़ है। मन में विचार आते हैं, वे सभी जड़ हैं। लेकिन अहंकार मिश्रचेतन है। यह शरीर, वह तो जड़ है, लेकिन मिश्रचेतन का थोड़ा-सा स्पर्श होता है, इसलिए उस पर असर होता है। मूल आत्मा के अलावा दूसरा भी एक भाग है। मूल आत्मा को तो जगत् जानता ही नहीं। यह जो दिखाई देता है, उसे ही चेतन मानते हैं। जगत् जिसे चेतन मानता है उसमें ज़रा-सा भी चेतन नहीं है, एक अंश भी चेतन नहीं है, 'गिलट' करने जितना चेतन भी उसमें नहीं है, इसीको माया कहते हैं न! जो चेतन नहीं है, फिर भी चेतन है ऐसा मनवाती है, वही भगवान की माया! और 'ज्ञानीपुरुष' ने इस माया को 'सोल्व' कर दिया होता है। प्रश्नकर्ता : ‘मेरी माया बदली जा सके ऐसी नहीं है, बहुत मुश्किल है' ऐसा भगवान ने कहा है न! दादाश्री : इतनी अधिक मुश्किल है कि वह माया हिलती ही नहीं। तब फिर छूटेगी ही कैसे? सिर्फ 'ज्ञानीपुरुष' ही इस माया से मुक्त करवा सकते हैं। क्योंकि वे खुद इस माया से मुक्त हो चुके हैं इसलिए

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