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आप्तवाणी-८
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दादाश्री : लेकिन अभी तो 'आपको' भेद है। अभेद हो जाएँगे तभी ‘भगवान' आपको मिलेंगे, ऐसा है। लेकिन 'आपको' तो 'चंदूभाई' ही रहना है और 'किसी स्त्री का पति बनना है, बेटे का बाप बनना है, किसीका मामा बनना है, किसीका चाचा बनना है।' तो फिर 'भगवान' 'आपको' मिलेंगे ही नहीं न! 'आप' 'भगवान' के हो जाओगे, तो ‘वे' ‘आपके’ साथ अभेद हो जाएँगे । 'आप' 'शुद्धात्मा' हो गए, 'भगवान' के हो गए तो 'आप' अभेद हो जाओगे। यह तो 'आपने' भेद डाला है, ‘भगवान' ने भेद नहीं डाला। 'इस स्त्री का पति हूँ' ऐसा कहा, इसलिए भगवान कहते हैं, 'जा, पति बन ।' तो इस तरह भगवान के साथ भेद डाला। अब भगवान के साथ एकाकार हो गए कि हो गया सब अभेद। और उस तरह से अभेद होने के लिए यह सारा 'विज्ञान' है। पूरा जगत् भगवान को ढूँढ रहा है और वह अभेद होने के लिए ढूँढ रहा है।
आपका कहना ठीक है कि यह भेद क्यों डल गया? बात तो सच ही है न? भेद तो, ऐसा है न कि भगवान तो खुद अंदर ही हैं, लेकिन एकता क्यों नहीं लगती ? भगवान की कभी परवाह ही नहीं की है न ! उसे तो ‘यह मेरी वाइफ और यह मेरा बेटा, और यह मेरा भाई, यह मेरा मामा', इन सबकी ही पड़ी हुई है । 'भगवान' की 'उसे' पड़ी ही नहीं है। अरे, भगवान की किसीको भी पड़ी नहीं है । भगत को भी भगवान की नहीं पड़ी है। भगत तो मंजीरा और इसी सब धुन में और धुन में मस्ती में रहे हैं। भगवान की किसीको भी पड़ी ही नहीं है। वे भगवान तो इसे रोज़ कहते हैं कि ‘किसीको मेरी पड़ी नहीं है।' कोई चाय की धुन में, कोई गांजे की धुन में, कोई किसीकी धुन में, कोई व्हिस्की की धुन में, कोई वाइफ की धुन में, तो कोई लक्ष्मी की धुन में, बस, धुन में ही पड़ा हुआ है यह जगत्।
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शुद्धता बरते इसलिए, शुद्धात्मा कहो
प्रश्नकर्ता : आपने शुद्धात्मा किसलिए कहा ? सिर्फ आत्मा ही क्यों नहीं कहा? आत्मा भी चेतन तो है ही न?