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आप्तवाणी-८
है' ऐसी जब तक शंका है, तब तक सोचना है। जब तक आत्मा संबंधी संदेह है तब तक सोचना है।
प्रश्नकर्ता : आत्मा के बारे में, जब तक यह संसार है तब तक तर्कवितर्क की भूमिका तो रहेगी ही न?
दादाश्री : आत्मा 'ज्ञानीपुरुष' से प्राप्त होना चाहिए और वह 'आत्मा' ज्ञानपूर्वक, उनकी आज्ञापूर्वक रहना चाहिए।
प्रश्नकर्ता : उसी तरह से तो प्रयत्न करते हैं, फिर भी तर्क-वितर्क खड़े होते हैं।
दादाश्री : एक बार यहाँ पर 'ज्ञान' लेना पड़ेगा, फिर आज्ञा में रहना पडेगा। और फिर आपको सत्संग में आकर पूछ लेना चाहिए। और यह तो निर्विकल्प ज्ञान है। इस निर्विकल्प ज्ञान में विकल्प क्यों होने चाहिए? संकल्प-विकल्प हों, तब तो अभी तक आत्मा की प्राप्ति हुई ही नहीं है, ऐसा कहा जाएगा। संकल्प-विकल्प करनेवाला हुआ कि निर्विकल्प होगा ही नहीं।
देह छूटे लेकिन बिलीफ़ नहीं छूटती प्रश्नकर्ता : इस शरीर का त्याग होने पर ये ‘रोंग बिलीफें' अपने आप चली जाती हैं न?
दादाश्री : यानी कि मर जाए, तब? प्रश्नकर्ता : हाँ।
दादाश्री : नहीं, वे 'रोंग बिलीफें' तो फिर से उत्पन्न होती हैं। क्योंकि मरने पर मोक्ष में नहीं जाता। मर गया, इसका मतलब यह कि यहाँ पर इसके पास ‘स्टॉक' में जो सामान था, उसे साथ में लेकर जाता है, क्रोध-मान-मायालोभ सब ‘स्टॉक' में हैं, उन सभी को साथ में लेकर जाता है, कुछ भी बाकी नहीं रखता, पूरा कषाय रूकी परिवार ही उसके साथ जाता है और फिर से, जहाँ नया जन्म होता है, वहाँ से फिर से शुरूआत होती है।