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आप्तवाणी-८
हैं। वर्ना अगर मान्यता नहीं बदली होती तो कर्म अलग होते ही नहीं। ये सब ‘रोंग बिलीफें' ही हैं। खुद परमात्मा है, लेकिन देखो न, यह क्या दशा हुई है!
बिलीफ़ से बिलीफ़ का छेदन प्रश्नकर्ता : अब ये 'रोंग बिलीफ़' हैं और फिर ये 'राइट बिलीफ़' बैठाते हैं, तो 'राइट बिलीफ़' का भी लाभ मिलेगा न? लेकिन वह भी बिलीफ़ तो है ही न? और जब तक बिलीफ़ है तब तक उसके फल स्वरूप कर्म तो रहेंगे ही न?
दादाश्री : लेकिन 'राइट' में तो बिलीफ़ ही नहीं है। यह तो 'रोंग बिलीफ़' का छेदन करने के लिए 'राइट बिलीफ़' है। नहीं तो 'रोंग बिलीफ़' छेदित होगी ही नहीं न! 'राइट बिलीफ़' से 'रोंग बिलीफ़' का छेदन करे, तब 'राइट बिलीफ़' से अपने आप ही, खुद से ही खुद का छेदन हो जाता है। अतः फिर उसका छेदन करना बाकी नहीं रहता। ऐसे क्रम में यह सब व्यवस्था में है। ऐसा है न, नहीं तो बढ़ते-बढ़ते अंत ही नहीं आएगा इसका। यह सम्यक्दर्शन है न, 'राइट बिलीफ़' है न, वह खुद ही विलय हो जाती है। 'राइट बिलीफ़' स्व-सत्ताधारी है और 'रोंग बिलीफ़' परसत्ता है।
निरालंब की दृष्टि से, वस्तुत्व का सिद्धांत 'ज्ञानीपुरुष' तो भान करवाएँगे कि 'संसार' से 'तू' चिपका हुआ है। वर्ना कोई वस्तु 'तुझे' स्पर्श नहीं कर सकती। तब वह कहेगा, 'मुझे कोई ज़रूरत नहीं है?' तब हम कहते हैं, 'नहीं, तुझे कोई ज़रूरत ही नहीं है। तुझे जगत् में अवलंबन की ज़रूरत ही नहीं है।' उसके बाद 'वह' भान में आ जाए न, तब वह कहेगा, 'मैं शुद्धात्मा हूँ, मैं शुद्धात्मा हूँ।' फिर अंदर चिंता-घबराहट कुछ भी नहीं रहती। चिंता-घबराहट, वह सब तो 'परवस्तु' में होता है और 'खुद' सिर पर ले लेता है कि 'मुझे ऐसा हो रहा है।' अरे, यह 'तेरा' नहीं है और यह सब दूसरे के घर में हो रहा है। 'तुझे' कहाँ कुछ हो रहा है? हो रहा है पड़ोसी के घर, वहाँ हमें क्या? और