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आप्तवाणी-८
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निकला।' 'अरे, नहीं है यह आत्मा का आनंद। यह तो मन का आनंद है। आत्मा का आनंद, तो एक बार होने के बाद वह आनंद फिर कभी जाता नहीं।' तब कहने लगे, 'अब यह बात सच लगती है। लेकिन हमारे सभी गुरु तो ऐसा कहते थे कि यह आत्मा का ही आनंद है। यही अनुभूति है।' मैंने कहा, 'नहीं, ऐसी अनुभूति के कारण तो दो पैरों में से चार पैर हो जाएँगे!' इन लोगों ने बेचारों को ऐसा उल्टा सिखाया है। मानसिक अज्ञान के आनंद को भोगना, वही अधोगति का कारण है। खरा तो ज्ञान का ही आनंद भोगने जैसा है।
अतः अज्ञान से मानसिक आनंद को भोगना, वही अधोगति का कारण है। जगत् के लोग निरंतर इस मानसिक आनंद में ही रहते हैं। थोडी उपाधि होती है, लेकिन वापस मानसिक आनंद का रास्ता ढूँढ निकाला कि चला फिर।
माना हुआ नहीं, जाना हुआ होना चाहिए संसार रोग कम हुआ या नहीं इतना ही देखना है। यदि कभी डॉक्टर के पास जाने से रोग कम नहीं हुआ, तो अपनी भूल हो रही है।
प्रश्नकर्ता : कम हुआ है। दादाश्री : क्या कम हुआ है?
प्रश्नकर्ता : मन से कम हुआ यानी सबकुछ कम हुआ। मन से हर एक चीज़ का त्याग हो गया, यानी सबकुछ हो गया।
दादाश्री : हाँ, लेकिन ग्रहण क्या हुआ? त्याग हो गया तो खाली हो गए। अपने पास रहा नहीं न कुछ भी? उससे फिर गरीब होने के बाद फिर गरीबी आ जाती है।
प्रश्नकर्ता : संसार के बारे में पूछ रहे हैं न? संसार के लिए तो त्याग की ही ज़रूरत है, जो वस्तु ग्रहण करनी होती है वह तो हम ग्रहण करते ही है।