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आप्तवाणी-८
है।' और मैं कहूँगा कि 'गाड़ी में बैठ जा, चुपचाप।' यानी मेरा धंधा क्या है? कि जो इधर-उधर बैठे हुए हैं, उन्हें वहाँ से उठाकर गाड़ी में बैठा देता हूँ। यह मेरा धंधा है। मन में सब मान बैठें, तो उससे कुछ होगा नहीं।
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प्रश्नकर्ता: मुझे अब निवृत्ति में जाने का विचार है, तो उस मार्ग पर मुझे स्थिर कीजिए। इसके अलावा मुझे और कुछ नहीं चाहिए।
दादाश्री : ठीक है। वह तो कर दूँगा । आपकी बात सच है। संसार रोग जाए, तभी काम का है न! ऐसा है न, यह संसार रोग जाए, ऐसा नहीं है! यह संसार रोग ऐसी चीज़ नहीं है कि चला जाए। इस तरफ़ का रोग कम हो तो दूसरी तरफ़ का रोग हो जाता है।
प्रश्नकर्ता : वह तो ज़िन्दगी में ऐसा सब चलता ही रहेगा।
दादाश्री : हाँ, चलता ही रहेगा, वही कह रहा हूँ न! यानी यह तो नाम छूटता नहीं, ममता छूटती नहीं । वहाँ पर रखा हो न, तो उसे याद आता रहता है। याद रहता है, इसका क्या कारण है? वहाँ पर तार जोइन्ट किया है, तार जोड़ा है? लेकिन नहीं । बिना तार के याद रहता है, लक्ष्य में रहा करता है। फ़लानी जगह पर यह रखा है, फ़लानी जगह पर यह रखा है I
प्रश्नकर्ता : लेकिन रखे तो याद करेगा न? अगर रखे ही नहीं, तो फिर याद क्या करेगा?
दादाश्री : नहीं, मैं आपसे ऐसा नहीं कह रहा हूँ। यह तो सब साहजिक बात कर रहा हूँ। किसी एक व्यक्ति से हम नहीं कह सकते, लेकिन (आपको) यह सारी जाँच करनी पड़ेगी क्योंकि अगर 'उधना' स्टेशन पर बैठे रहें और मान लें कि वेस्टर्न रेल्वे का आखिरी स्टेशन आ गया और पूरा हो गया, ऐसा मानें तो क्या दिन बदलेंगे ?
प्रश्नकर्ता : लेकिन कहाँ जाना है ऐसा नक्की होना चाहिए न ?
दादाश्री : वह तो सभी लोग जानते हैं कि हमें मुक्ति चाहिए, हमें मोक्ष चाहिए। इसे शब्दों से जानते हैं। लोग जानते हैं कि हमें आत्मा बन जाना है। लेकिन वे कहाँ पर बैठे हैं, उसकी उन्हें ख़बर नहीं होती न !